Sunday 24 September 2017

sसिमटती दुनिया बढ़ते भाषाओं के दायरे


भाषा वही जो दिलों में उतर जाए। जो भाषा दिल में नहीं उतरती, वो जनमानस की भाषा नहीं बन सकती और जो भाषा जनमानस की नहीं बन सकती, वो कभी विकसित नहीं हो सकती। यह महत्वपूर्ण है कि किसे कौनसी बात किस भाषा में समझ आती है। नेल्सन मंडेला ने कहा भी है: "अगर आप एक आदमी से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है, तो वह उसके दिमाग तक जाती है। वहीं अगर आप उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल में उतरती है।" इस बात में कोई संदेह नहीं कि निज भाषा में ही हम सबसे पहले अपने ज़ज़बातों व अहसासों को शब्दों का रूप देते हैं, परन्तु किसी की निज भाषा क्या है, यह एक व्यक्तिगत प्रश्न है।  
भले ही महनीय कवि भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने अपनी प्रसिद्ध कविता मातृभाषा के प्रति' में कहा है - निज भाषा को उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, परन्तु उनके इस कथन को आज की बदलती और सिमटती दुनियाँ के परिपेक्ष में देखने की आवश्यकता है क्योंकि भारतेन्दु युग से आज के युग तक आते आते काफ़ी कुछ बदल गया है। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि उनके द्वारा कही गयी बात की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है। मैं सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ कि उनके इस कथन का मायने आज वो नहीं है जो तब था, बल्कि इसका दायरा बढ़ा है। उनके कथन का आज ये आशय नहीं निकाला जा सकता कि सब की निज भाषा एक ही हो। मेरी निज भाषा हिंदी हो सकती है और आपकी कोई और तथा किसी तीसरे की कोई और। हाँ, इतना ज़रूर है कि हर किसी को अपनी भाषा का प्रचार करने का हक है और उसे ऐसा करना भी चाहिए।
हमारा देश के संविधान में बहुत सी भाषाओं को मान्यता दी गयी है, तो किसी एक भाषा को निज भाषा कैसे करार दिया जा सकता है। हिंदी वाले हिंदी का, अंग्रेज़ी वाले अंग्रेज़ी का, संस्कृत वाले संस्कृत का और कोई अन्य भाषा वाले अपनी अपनी भाषाओं का प्रचार करें। इसमें कोई समस्या नहीं। किसी जगह की की सभ्यता और संस्कृति को जानने के लिए आवश्यक है हम उस जगह की भाषा को समझे क्योंकि भाषा अपने साथ संस्कृति भी लेकर आती है। फ़िर आज तो हम गुगल, फ़ेसबुक और व्ट्सएप के प्रचार और संप्रेषण के उस युग में रह रहे हैं जहाँ हर देश पड़ोसी ही लगता है। रोज़गार के लिए या फ़िर अन्य किसी प्रयोजन से लोग एक-दूसरे देश आ जा रहे हैं। तो हम एक ही भाषा से चिपक पंगु बन कर तो नहीं बैठ सकते न। ऐसे में  बहुभाषिया होना एक काबिलेतारीफ़ सलाहियत है। विचारक योहान वुल्फगांग फ़ान गेटे, जिन्होंने कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् का जर्मन भाषा में अनुवाद किया, ने कहा है: "जिसे किसी विदेशी भाषा का कोई ज्ञान नहीं, उसे अपनी भाषा का भी कोई ज्ञान नहीं होता।"
हर एक को अपनी भाषा को तरज़ीह देनी ही चाहिए, परन्तु इसके मायने ये भी नहीं है कि अन्य भाषाओं को हिकारत भरी निगाहों से देखा जाए। भारतेन्दु जी स्वयं बहुत सी भाषाओं का इल्म रखते थे। यदि, उर्दू, पंजाबी या अंग्रेज़ी बोलना या लिखना शुरू कर दूं, तो मैं हिंदू न रह कर मुसलमान, गोरा या सिक्ख हो जाता हूँ क्या? सोलहवीं शताब्दी के रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने कहा था - मैं ईश्वर से स्पैनिश में, महिलाओं से इतालवी में. पुरूषों से ह्रैंच में और अप्ने घोड़ों से जर्मन में बातें करता हूँ - अर्थात जितनी अधिक भाषाएं आप जानते हैं, उतना ही बेहतर आप अपने विचारों का संप्रेषण कर सकते हैं। मैने हिंदी भाषा के ऐसे हिमायती भी देखें हैं जो कह-कह कर नहीं थकते कि अंग्रेज़ी भाषा से गुलामी की बू आती है, लेकिन ख़ुद 'मे आई कम इन', 'बाय-बाय', और 'थैंक यू' जैसे अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने में अपनी बड़ाई मानते हैं। वास्तव में भाषाएं बहनों की तरह होती हैं। वे कभी नहीं टकराती। टकराती तो भाषा के प्रति हमरी मानसिकता है।
अगर हम अपनी-अपनी भाषाओं के दायरे खींच ले, तो न तो भाषाओं का आदान-प्रदान होगा, न उनका विकास होगा और न ही हम एक दूसरे की संस्कृति से पूरी तरह वाकिफ़ हो पाएंगे। यदि सभी अपनी-अपनी भाषा का राग अलापने लगेंगे, तो भाषाओं का परस्पर मेल नहीं हो पाएगा। सोचिए अगर भाषाएं एक दूसरे से न मिलती, तो श्रीमदभगवद गीता को केवल हिंदु पढ़ पाते, कुरान मुसलमान ही पढ़ते, आदिग्रन्थ केवल सिक्ख जानता और बाइबल केवल ईसाईयों तक सीमित रहती, परन्तु इन पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध होने से विश्व के लोग इन्हें पढ़ पाते हैं।
हमारे देश की आज़ादी में भी कई भाषाओं का योगदान रहा है। राष्ट्रगीत ’वंदे मातरम’ और राष्ट्रगान ’जन गण मन’ हमें बांग्ला ने दिए और ’सारे जहां से अच्छा...’ इकबाल की उर्दू भाषा में लिखी गई देश प्रेम की ग़ज़ल है। अगर ’दिल्ली चलो’, 'करो या मरो' 'जय हिंद' जैसे नारे हिंदी के हैं, तो क्रांति का प्रतीक ’इंक़िलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा उर्दू ज़बान का है। टैगोर की ’गीतांजली’ को ब्यापक सम्मान अंग्रेज़ी में अनुवादित होने के उपरांत मिला। चाहे राम प्रसाद बिस्मल ने कहा - ’लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी’, फ़िर भी उनका उर्दू से बहुत लगाव था। उन्होंने बिस्मल को अपना तख़ल्लुस बनाया और कई वतन परस्ती से लवरेज़ तराने लिखे। उन्होंने क्रान्तिकारी बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखित उर्दू तराना ’सरफ़रोशी की तमन्न्ना आज हमारे दिल में है...’ को एक नारा बनाया जिसे हम आज भी गुनगुनाते हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और दुष्यंत कुमार की गज़लों में हिंदी व उर्दू जिस तरह से हमामेज़ हुई हैं, वह साहित्य को एक ख़ूबसूरत आयाम देता है। जहां हिंदी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने देश की आज़ादी में अहम भूमिका निभाई, वहीं आधुनिक भारत के जनक राजाराम मोहन राय ने अंग्रेज़ी का इस्तमाल भारत पुनर्जागरण के लिए किया। उन्होंने इस भाषा को अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच सेतु स्थापित करने के लिए भी किया। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पंडित नेहरू. आर के नारायनन, राजा राव, किरन देसाई, अरुनधति रॉय, जैसे भारतीय लेखकों ने अंग्रेज़ी भाषा का इस्तमाल करके ऐसी साहित्यिक रचनाएं लिखी जिनसे विश्व में देश का नाम रोशन हुआ है।
किसी भी भाषा के विस्तार और विकास के लिए ज़रूरी है कि यह दूसरी भाषाओं के प्रति उदार रहे। जैसे हिंदी भाषा के ‘चपाती‘, ‘बिनदास‘ जैसे शब्दों के मुकाबिल दूसरी भाषा में नहीं मिलते, ठीक वैसे ही दूसरी ज़बान के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल हिंदी में नहीं जैसे उर्दू के ’इरशाद’ ’तख़लिया’ या और अंग्रेज़ी के स्पैम, (Spam) गुगली (Googly) जैसे शब्द। ज़बान के  अल्फ़ाज़ को हमामेज़ करने ही सलाहियत ही ज़बान को तरक्कीयाफ़दा बनाती है।
भाषा किसी की बांदी नहीं होती। इसे किसी खूंटे से नहीं बांधा जाना चाहिए अन्यथा यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है जिसे ज़ीने के लिए दाना तो मिलता है, पर उसकी ऊड़ान कुंद रह जाती है। तेरहवीं शताब्दी इंग्लैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक रोजर बेकन ने कहा था - ज्ञान की चॊटी पर हम विभिन्न भाषाओं को जान कर पहुंच सकते हैं। तो आइए भाषाओं का प्रयोग हम जोड़ने के लिए करें, तोड़ने के लिए नहीं।


बात-चीत का बिगड़ता मिज़ाज़


      किसी के बात-चीत के अंदाज़ से काफ़ी हद तक उसके व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगाया जा सकता है क्योंकि हर एक का अंदाज़-ए-बयाँ अपना अपना होता है। परन्तु धीरे-धीरे हमारी आम बात-चीत में फ़ूहड़ता और भद्दापन आम हो गया है|
      कुछ रोज़ पहले एक शाम रोज़ाना की तरह टहल रहा था। टहलते टहलते एक छोटॆ से मैदान के पास से गुज़रना हुआ। वहां कुछ बच्चे खेल रहे थे। तभी मैने देखा एक छोटा सा बच्चा अपनी बहन के साथ झगड़ रहा है। बच्चे की उम्र कोई छः साल और उसकी बहन की उम्र तकरीबन आठ साल प्रतीत हो रही थी। झगड़ते झगड़ते अचानक बच्चे ने अपनी बहन को धक्का दिया और बोला - 'साली मा... लौ... ' बच्ची तो गिरते-गिरते बची और मम्मी, मम्मी चिल्लाने लगी, पर मैं उस नन्हें से बालक के मुंह से इन शब्दों को सुन कर हक्का बक्का रह गया। मैंने बच्चे को डांटते हुए कहा - 'गंदी बात करता है। ऐसा भी कोई बोलता है क्या?' बच्चा वहां से भागता हुआ बोला - 'जब पापा मम्मी से लड़ते हैं, वो भी तो मम्मी को ऐसा ही बोलते हैं।' ज़ाहिर है बच्चे ने ये भाषा अपने घर में ही सीखी होगी। इसमें बच्चे का दोष नहीं क्योकिं उसे तो ये मालूम भी नहीं होगा कि जो उसने कहा उसके मायने क्या क्या थे। जन्म लेते ही कोई बच्चा बोलना थोड़ी शुरू कर देता है।
      दरअसल हमारी रोज़ाना की भाषा में फूहड़पन और अभद्रता आ गयी है। अकसर बच्चे बड़ों के द्वारा इस्तेमाल की गयी भाषा को बड़ी जल्दी अपना लेते हैं। पैंट-कोट-टाई पहने हुए दो जेंटलमैन यार जब मिलते हैं, तो उनके सम्बोधन मैं भी भाषा का बिगड़ा हुआ मिज़ाज़ झलकता है। एक कहता है - ’और भई मा ... ।’ दूसरा जवाब यूँ ज़वाब देता है - ठीक हूँ भई पैं ... ' आत्मीयता मेँ वे भूल जाते हैं की उनके आस-पास भी दुनिया बसती है। अगर निकट कोई बच्चा हो तो बात दूर तलक पहुंच जाती है। उसे लगता है कि है शायद अपनेपन में ऐसा ही कहना चाहिए। हिंदी फ़िल्मों के संवादों व गानों में तो अब इस तरह की अलंकृत भाषा का इस्तेमाल आम होता जा रहा है।
      वैसे बात-चीत के बिगड़े हुए बोलों से आप  विद्यालयों मेँ भी रू--रू हो सकते हैं। मज़े की बात ये है कि छात्र ताबड़तोड़ इन एक्सपलेटिवज़ का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें अहसास तक नहीं होता कि वे क्या बोल रहे हैं। कई बार तो गुरु लोग भी इनका इस्तेमाल करने में मज़बूर दिखते हैं। वे बेचारे भी क्या करें - ज़ुबान पर जो चढ़ गई है ये निगोड़ी ज़बान। किसी आम शौचालय की दीवारों पर जो कुछ लिखा मिलता है, वो लिखने वालों के अंदर छुपे मैल को दर्शाती है। कुछ महाशय अपने अंदर छुपी हुई इस शैतानी को शेर लिख कर भी दर्शाते हैं। कहते हैं कई बार तो ये महाशय मौका पा कर महिलाओं के शौचालयों में घुस कर भी अपनी सृजनात्मकता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ये देख कर छोटे बच्चे भी ऐसी भाषा सीख जाते हैं और छोटे मियाँ कई बार दो कदम आगे निकल जाते हैं - बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे सुभान अल्लाह।
      बच्चे छोटे ज़रूर होते हैं, पर उनके कान लंबे होते हैं अर्थात बच्चे इस बात के प्रति सचेत होते हैं कि माँ-बाप के बीच क्या बातें चल रही हैं। अगर माता-पिता अपने बच्चे को किताबों को सही क्रम में अल्मारी में रखने के लिए कहता है, तो वह इस बात को नज़र अंदाज़ कर सकता है, मगर माता-पिता के बीच होने वाले संवाद के प्रति वे बड़े सचेत होते हैं। दोनों के बीच चल रहे वाद-विवाद, आक्रामक बहस व कहा-सुनी को वे बड़े ग़ौर से सुनते हैं। अगर दोनों के बीच यह अकसर होता रहे, तो बच्चे की वाक्शैली पर इसका प्रभाव अवश्य नज़र आता है।
            जिस भाषा में बड़े बात करते हैं, जिस लहज़े और अंदाज़ में बड़े बोलते हैं, वही भाषा और अंदाज़ बच्चों का भी हो जाता है। बच्चे को किसी भी भाषा वाले माहौल में डाल दिया जाए, वह उस भाषा को बिना किसी औपचारिक पढ़ाई के ही सीख जाता है। वे अकसर वही भाषा बोलते हैं, जो वे बड़ों को कहते हुए सुनते हैं। यदि वे बड़ों को गाली-ग़लोज़ करते हुए सुनते हैं, तो वे भी गाली देना सीख जाते हैं; यदि बड़े गुस्से में चिल्लाते हैं, वे भी चिल्ला कर बोलना सीख जाते हैं। उन्हें कई शब्दों के मायने भी पता नहीं होते, परन्तु वे उनका प्रयोग कर लेते हैं। वे ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं, जिन्हें सुन कर घर के बड़े सन्न रह जाते हैं। कई बार तो वे टॉयलैट में लिखी अश्लील भाषा के बारे में भी पूछ लेते हैं। दरअसल बड़ों के द्वारा प्रयोग की गई आक्रामक, गंदी व अश्लील भाषा जुकाम की तरह फ़ैलती है - बड़े से बच्चे को, बच्चे से बच्चे को और फिर सारे बच्चों को। 
      भाषा का ज्ञान न होना अलग बात है, परन्तु फूहड़ और अभद्र भाषा का नियमित तौर पर इस्तेमाल समाज में बढ़ रहे छिछोरेपन व विकृत  मानसिकता को दर्शाता है। मैं हिंदी दीवस पर अपनी भाषा की पैरवी करने वाले भाषा के पंडियों से ये नहीं पूछूंगा कि हिंदी की पैरवी करने वाले कितनों को मालूम है कि कवर्ग के बाद टवर्ग आता है या चवर्ग। मुझे इससे भी कोई गिला नहीं कि हिंदी की पैरवी करते-करते कितने ’गांधी’ को ’घांदी’ और ’गधा’ को ’घदा’ बोलते हैं, नाले’ को ’नाड़ा’ बोलते हैं। मैं इतनी इल्तज़ा ज़रूर करूंगा कि भाषा के बिगड़ते मिज़ाज़ पर भी कुछ चर्चा कर लें, तो शायद आने वाले समय में कम से कम आम बोल-चाल में फ़ूहड़पन कुछ तो कम होगा। लेखक जेम्ज़ रोज़ोफ का कहना है - 'भाषा की फूहड़ता बढ़िया मदिरा की तरह होता है, जिसका इस्तेमाल एक ख़ास समूह मेँ ख़ास समय पर ही किया जा सकता है।‘
    




जिसके आँचल में दूध है, उसकी आंखों में पानी क्यों?

       घर में जब कोई मेहमान आता है, तो मा-बाप कहते है - बेटी चाए तो बना लाओ। बेटा चाहे पास बैठा हो या टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहा हो या मोबाइल फ़ोन पर गैम खेल रहा हो, उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा जाता। अगर उससे ऐसा कह भी दिया जाए तो, छोटे लाल कहते हैं - ये तो दीदी करेगी क्योंकि वो लड़की है। माँ थकान महसूस कर रही हो, तो वो कहती है - बेटी जरा बर्तन तो धो लो। आज ज़रा चपाती तो बना लो। बेटी, जरा झाड़ू तो लगा। ये मत करो, वो मत करो, इतनी देर कहाँ थी, ये मत पहनो, वो मत पहनो, तुम लड़की हो। औरों के घर जाओगी, तो वे क्या कहेंगे? इन्हीं शब्दों के साथ शुरू होती है ज़्यादातर घरों की बेटियों की कहानी और इन्हीं शब्दों से गढ़े हुए माहौल में वह पलती बड़ी होती है। बेटी से बहन, पत्नि और माँ बनते-बनते भेदभाव की दीवार पुख़्ता होती जाती है, ये मानसिकता मज़बूत होती जाती है और नारी इसे अपनी नियती समझ कर अपना किरदार चाहे-अनचाहे निभाती जाती है। उसके जीवन के इस सफ़र में कहानी वही रहती है, एक ऐसी कहानी जिसमें केवल पात्र बदलते रहते हैं, नाम बदलते रहते हैं, परन्तु घटनाएँ वही रहती है - शोषण, बलात्कार, दहेज़, भ्रूण हत्या, अशिक्षा। जब निर्भया, गुड़िया जैसी दिल दहला देने वाली घटनाएँ होती हैं, तो मैथिली शरण गुप्त की ये पंक्तियाँ अनायास ही याद हो आती है - अबला जीवन तेरी हाय यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी।
      आज के आधुनिक युग में भी ऐसा क्यों? मैं ये तो नहीं कह रहा हूँ कि हमारे देश में नारी ने तरक्की नहीं की है। दरअसल हमारा नारी समाज दो वर्गों में बंटा है - एक वर्ग में सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी, किरन देसाई, नीरजा भनोट, सुषमा स्वराज, कल्पना चावला, किरन बेदी, सानिया मिर्ज़ा, पी वी सिंधू, दीपा कर्माकर जैसी प्रगतिशील और सशक्त महिलाएँ हैं, जिन्होंने यही सिद्ध किया है महिलाएँ अपने बलबूते अपने आप को बुलंदियों पर स्थापित कर सकती हैं। ये किसी आरक्षण की मोहताज़ नहीं। परन्तु हमारे नारी समाज का एक बहुत बडा वर्ग ऐसी महिलाओं का है, जो कोने में दुबक कर एक शून्य की जिन्दगी जी रही हैं। वे पुरूष प्रधान समाज की रूढिवादी सोच को या तो अपना भाग्य मान बैठी हैं या फिर धर्म मान कर रिश्ते निभा रही हैं, पति की सेवा कर रही हैं और पुरूष की ज़्यादती को सहन कर रही हैं। ज़ुल्म होने पर भी शिकायत नहीं करतीं, अगर करती हैं, तो उनकी आवाज़ को दबा दिया दिया जाता है। वे पुरूष की ताड़ना और प्रताड़ना का शिकार बन जाती हैं। ऐसी कई घटनाएँ होती हैं, जो या तो दर्ज़ नहीं होती या नज़र में नहीं आ पाती या फ़िर अख़बारों की सुर्खियाँ नहीं बन पाती। यही वह वर्ग है जिसमें नारी शून्य की ज़िंदगी गुज़ार रही है। इस शून्य से बाहर कॆसे लाया जाए? यह एक यक्ष प्रश्न है।
      वास्तव में नारी सशक्तिकरण का मामला नारी और पुरूष दोनों की मानसिकता से जुड़ा हुआ सवाल है। प्राचीन काल से पितृसत्तात्मक समाज में कायदे कानून पुरूष ही बनाता आया है। उसे जब-जब जैसा सुविधाजनक लगा, उसने तब-तब नारी को उस सोच में ढाल दिया। कभी शास्त्रों में उसने कहा - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:, उसने कहा- ढोर, गँवार, शूद्र, पशु और नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी, उसने कहा - नारी तुम केवल श्रद्धा हो...। अर्थात पुरूष ने अपनी सुविधा के अनुसार नारी को परिभाषित करने का प्रयास किया। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष नारी पर विजय चाहता है और नारी समर्पित होती चली जाती है, पुरुष उसे लूटना चाहता है और नारी लुटती चली जाती है। अग्नि में बैठकर अपने आपको पवित्र प्रमाणित करने वाली स्वच्छ सीता पितृसत्तात्मक समाज में नारी वेदना की परिचायक है।
      इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से उगने वाली मनोवृति व रूढ़िता से पुरूष को बाहर आना होगा। जरा सोचिए आप ने अपने-अपने घरों में अपनी माँ, पत्नी, बहिन और बेटी को कितनी भागीदारी, आज़ादी व अधिकार दिए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप गलियों मैं नारी सम्मान का ढोल पीटते हैं और अपने घर में उन पर अपने मर्द होंने की धौंस जमाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि भाषणों में तो आप नारी को शक्ति का रूप मानते हैं, परन्तु मन ही मन उसे अबला समझते हैं? आप उन्हें घर के सामाजिक व आर्थिक निर्णय लेने में कितनी भागीदारी देते हैं? कहीं आप बेटा और बेटी को शिक्षा दिलाने के मामले में बेटी के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं? ये सवाल अपने आप से कीजिए। अगर वाकई आप अपने घरों में भी नारी का सम्मान कर पाते हैं और उन्हें बराबरी का स्थान देते हैं, तो महिला आरक्षण विधेयक व घरेलु हिंसा निरोधक जैसे कानून की आवश्यकता ही नहीं, न ही नारी को सड़क पर नारे लगाने की जरूरत है। वास्तव में पुरुष को ज़हनी तौर से नारी को उसका स्थान देना होगा।
      नारी उत्थान के लिए नारी को स्वयं भी सचेत होना होगा। उसे हाथ पसार कर नहीं, बल्कि अपनी शक्ति को स्वयं पहचान कर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। महज़ आरक्षण व कानून के सहारे बैठ कर नारी सशक्त नहीं हो सकती। वास्तव में नारी को स्वयं को अंधयारे से बाहर लाना होगा। उसे सुशिक्षित हो कर खुद को बौद्धिक व आर्थिक स्तर पर पुरूष के समकक्ष खड़ा होना होगा। ऐसा नहीं है कि आज की नारी को मौका नहीं मिल रहा। देखना होगा की नारी को यह सब कुछ मिलने के बाद भी क्या वह अपने अधिकरों का प्रयोग करने में आज़ाद है। उदाहरत: स्थानीय निकायों में कितनी ही महिलाएँ चुन कर आती हैं, परन्तु वे या तो निष्क्रीय हो जाती हैं या उनकी डोर पति के हाथ में ही रहती है। 
      कहते हैं जिस घर में बहू बेटियों की इज़्ज़त नहीं, उस घर में बरकत नहीं होती। नारी किसी भी समाज का आधा हिस्सा होता है और पुरूष का आधा अंग। इस आधे हिस्से और अंग के बगैर न कोई व्यक्ति फल फूल सकता है और न ही समाज उन्नति कर सकता है। आज के बदलते परिवेश में नारी ताड़न की अधिकारी नहीं। य़ह भी आवश्यक नहीं कि वह हमेशा श्रद्धा बन कर पुरूष के आंगन में पीयूष स्रोत सी बहती रहे। अहम बात है कि पुरुष को नारी की आज़ादी को स्वीकारना होगा। कवि जयशंकर प्रसाद ने हमें सावधान करते हुए कहा है - जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल। ईश का वो रहस्य वरदान
, कभी मत उसको जाओ भूल।
      नारी को भी अपने हिस्से की धूप चाहिए, उसे भी अपने हिस्से का आसमां चाहिए, उसे भी अपने हिस्से का जहाँ चाहिए, जहाँ वह भी पुरुष की तरह स्वछन्द विचारों की उडान भर सके। आखिर जिस नारी के आँचल में संसार के लिए दूध है, संसार उस नारी की आंखों में पानी क्यों दे जाता है?