Sunday 12 March 2017

अगर शब्द न होते...

खुदा ने इंसान को ज़ुबान दी, ज़ुबान के साथ ऐसा श्वस्नतंत्र दिया जिसका इस्तेमाल वह बोलने के लिए करता है। बोलने के लिए शब्द चाहिए। अपने ख़्यालों के इज़हार के लिए भी शब्द चाहिए। अगर शब्द न होते तो हम अपने ख्यालों को कैसे लिख पाते। शब्द न होते तो न ही किताबें लिखी जाती और न ही कुछ पढ़ने को होता। हम आज की तरह एस एम एस न कर पाते, न फ़ैसबुक पर कोई अपनी बात लिख कर स्टेटस डाल पाते। न ही कोई वट्सऐप पर चैट कर पाता, न कोई ट्वीट कर पाता। हम केवल फ़ोटो अपलोड कर पाते। हम इतनी सुगमता से पुराने यार दोस्तों को न खोज पाते। तब कुछ याद रह जाता और बहुत कुछ भूल जाता। कुछ भूली और कुछ बिसरी बातें शेष रह जाती। ये यादों के अफ़साने कुछ ही समय बाद दफ़्न हो जाते। कुछ अफ़सानों की कबरें होतीं तो कुछ कबरों के अफ़साने होते। ज़रा कल्पना कीजिए! अगर शब्द न होते तो इंसानों की दुनिया कैसी होती।
शब्द न होते तो हम अपनी बात कैसे कह पाते? हमारी भाषा कैसी होती? हम अपने सुख, दुख, खुशी, उत्साह, न्राराज़गी व गुस्से को कैसे व्यक्त करते? हमारी भाषा भी शायद वनों में में विचरण करने वाले प्राणियों की तरह होती, पालतु जन्तुओं की तरह होती और आकाश में विचरण करते पंछियों की तरह होती। हम अगर गुस्सा करते तो कुत्ते की तरह गुर्राते और चिल्लाना चाहते तो शायद उसी की तरह भौंकते। खुश होते तो इसका इज़हार शायद घोड़े की तरह हिनहिना कर करते या फ़िर गधे की तरह ढेंचु ढेंचु करते। ऐसे में इज़हारे मोहब्ब्त कैसे करते? शायद आंखों के ईशारे से ही सब कुछ समझना पड़ता और दिल जीतने का ये हुनर भी सीखना पड़ता क्योंकि न खत लिख पाते न वैलेंटाइन डे पर ग्रीटिंग कार्ड दे पाते। तब प्रेम कहानी तोता-मैना जैसी ही होती। अगर कोई कोयल की तरह कूक पाता तो उसे लता और रफ़ी की तरह अच्छा गायक समझा जाता। तब गीत न होते और अगर संगीत होता तो मंद मंद बहती हवा का होता, कल कल करते नालों का होता और झर झर करते झरनों का होता।
अगर शब्द न होते हम भला कैसे होते? बिना शब्दों की दुनिया में हम या तो मिस्टर बीन की तरह होते या चार्ली चैपलिन की तरह होते या फ़िर माइम के किसी एक्टर की तरह। आप किसी गूंगे की कल्पना भी कर सकते हैं। टीवी पर केवल ईशारों से ही समाचार दिखाये जाते और सिनेमा के रुपहले पर्दे की कहानी आलामारा से आगे न बढ़ती। तब केवल चार्ली चैपलिन या मिस्टर बीन जैसे ही अदाकार दिखते। तब कैसा लोकतंत्र होता? उस लोकतंत्र में विरोध के नारे न लगते, न कोई लिखित बैनर होते, न तख्तियों के सहारे कोई अपनी भड़ास निकाल पाता। तब शायद आदमी बंदरों के किसी दल की तरह शोर मचाते। ऐसे में कोई ब्यान न दे पाता और न ब्यान पर बवाल होता न सियासत। ऐसे में अभिव्यक्ति की आज़ादी कौन बात करता और क्या बात करता? तब न कोई अखबार होता, न कोई लिखता और न कोई पढ़ता। तब साहित्य कैसा होता? शायद होता ही नहीं।


तो बताइए क्या वो शब्दों के बगैर दुनिया हमारी शब्दों से बेहतर होती? वो दुनिया अलग ज़रूर होती, बेहतर नहीं या यों कहिए कि वो दुनिया अधूरी और निरस होती। सचमुच शब्द हमारी दुनिया को कई तरह के रंगों से भरते हैं। ये हमारी ज़िंदगी को नया आयाम देते हैं। शब्दों से हम समझते भी है और समझाते भी हैं। शब्द अपने आप में शक्ति हैं और किसी को भी शक्ति प्रदान करते हैं। ये शब्द आपकी भी शक्ति बन सकते हैं। कोई समझ ले तो एक शब्द भी जीवन बदल देता है, न समझो तो लाखों शब्द भी निरर्थक हैं। शब्द घाव भी देते हैं और घावों पर मरहम भी लगाते हैं।
शब्द आज़ाद है, पर उनका चुनाव करने के लिए आपको विवेकपूर्ण होना पड़ेगा। शब्द आप सुनते या पढ़ते ही नहीं, बल्कि वे एहसास दिलाते हैं। शब्दों की शक्ति असीम होती है। शब्द युद्ध और शान्ति दोनों करवाते हैं। कागज़ पर उतारे गए और मुंह बोले गये शब्द दुनिया में उथल पुथल मचा सकते हैं। शब्द धरा पर नहीं, दिलों पर पड़ते हैं और फ़िर बीज बन जाते हैं जिससे महाभारत जैसे युद्ध के भयानक वृक्ष भी अंकुरित हो सकते हैं या फ़िर विश्वशांति के पौधे। शब्द विध्वंसक परमाणु बम भी बन सकते हैं या पीड़ा से मुक्ति और मन को शीतलता देने वाली औषधि भी ।
बहुत नासमझ होते हैं वो जो कहते हैं - शब्दों में क्या रखा है? इतिहास गवाह है कि दुनिया को दिशा देने वाले वही लोग थे जो शब्दों की अहमियत को समझते थे। अच्छे शब्द बहुमूल्य होते हैं और उनके इस्तेमाल में कोई खर्च नहीं आता। शब्दों के चयन में की गयी चंद लम्हों की गलतियों के कारण सदियों पछताना पड़ता है। ज़ुबान में हड्डी नहीं, परन्तु इससे उगले हुए शब्द के तीर दिल को भेद कर रख देते हैं। कहा भी है - ख़ुदा को पसंद नहीं सख्तियां ज़ुबान की, इस लिए हड्डी नहीं ज़ुबान की।

Tuesday 7 March 2017

लैफ़्ट-राइट, असहिष्णुता और अभिवयक्ति की आज़ादी

पिछले कई महीनों से देश में एक बहस चल रही है जो अभिव्यक्ति की आज़ादी, सहिष्णुता और असहिष्णुता के इर्द गिर्द घूमती रही है। हालांकि यह बहस कम है और शोर ज़्यादा लगता है। इस बहस को राजनीतिक दल, मिडिया चैनल्स व सोशल मिडिया अपने-अपने ढंग व सुविधा से परिभाषित करते रहे हैं और अपनी-अपनी सुविधा व फ़ायदे के अनुसार हवा दे रहे हैं। मुझे शरद जोशी का वयंग्य ’अंधों का हाथी’ याद आया जिसमें चार अंधे इस बात पर बहस छेड़ देते हैं कि हाथी कैसा है।
कोई मिडिया चैनल अपने चैनल् का पर्दा इतना काला कर देता है जैसे देश में अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं बचा है। कुछ चैनल्स इतनी बुलंद आवाज़ में चिल्लाते रहते हैं मानो देश के कोने कोने में अच्छे दिन आ गये हैं। कई लेखकों को तो अचानक लगने लगा कि देश में एमरजैंसी जैसे हालात बन गये हैं और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी इस कदर दबायी जा रही है कि उन्होंने अपने ईनामा वापस लौटा कर अपना गुस्सा ज़ाहिर किया। कुछ को आज़ाद भारत इतना बुरा लगने लगा है कि उन्हें अपने देश में रहने से डर लगने लगा है और इंडिया को इन्क्रेडिबल इंडिया कहने वालों को भी इसकी क्रेडिबिलिटी पर शक होने लगा है। कुछ इतने देश भक्त निकलते हैं कि असहिष्णुता की बात करने वालों को देशद्रोही करार देने में वक्त नहीं लेते और देश छोड़ने का फ़तवा नहीं तो सलाह तो दे ही देते हैं। कुछ को लगने लगा कि भारत माता की जय बोलेंगे तो उनका अधिकार छिन जाएगा, तो कुछ देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले और कश्मीर की आज़ादी के नारों को अभिव्यक्ति की आज़ादी करार देने पर अड़े हैं। हर वर्ष पंद्र्ह अगस्त को देश की आज़ादी का जश्न मनाने के बाद आज़ भी इन्हें कश्मीर की आज़ादी चाहिए। कोई कनैहिया बुराई से लड़ने वाला सुदर्शन चक्र धारी कृष्ण दिखाई देता है तो किसी किसी को उसकी आज़ादी की आवाज़ से देशद्रोह की गंध आने लगी है। संविधान व न्याय की बात करते करते फ़ैसला आने से पहले ही मिडिया व नेता उसे या तो देशद्रोही कहने लगे या फ़िर मसीहा।
सिक्कों के बल पर देश के कानून के दांव पेंच खेलकर जो कई रसूकदार लोग कत्ल के इल्ज़ाम से बरी हो जाते हैं वे भी इस देश में अपनी आज़ादी को छिना हुआ महसूस करता है और दहशत फ़ैलाने वालों को दहशतगर्द कहने से कतराते है। बेकसूर लोगों का कत्ल करने वाले याकूब मेमन जैसे आतंकवादी को बचाने लिए अपने आप को संविधान का पुजारी कहने वाले आधी रात को भी देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाज़ा खटखटाते हैं और खुद को सैक्युलर और सहिष्णु साबित करते हैं। काश इतनी ही शिद्दत से वे गरीब, बेकस लोगों को इंसाफ़ दिलाने के लिए भी न्यालय के दरवाज़े खटखटाए जाते!
इस सारे शोर शराबे में कोई लैफ़्ट चलने लगा है और कोई राइट। इस लैफ़्ट-राइट के मार्च में दोनों तरफ़ एक भीड़ लगने लगी है और इस भीड़ में से हट कर जो राजनीति के डिब्बे से बाहर आ कर अपनी बात कहता है उसे ये भीड़ या इधर खींच रही है या उधर ठेल रही है। उसे कई तरह की संज्ञाएं दी जाने लगी है। किसी को कोई फ़ासिस्ट कह रहा है, तो किसी को नक्सली होने का प्रमाणपत्र मिल रहे हैं। किसी को संघी बत्ताया जाने लगा है और किसी को माओवादी। जिस दिन मैने नोटबंदी पर आम लोगों के मन में उठ रहे सवालों का ज़िक्र किया तो मुझे लैफ़टिस्ट कहा जाने लगा, जिस दिन मैने तिरंगे और भारत माता की जय की पैरवी की तो मुझे संघी बना दिया गया, जिस दिन मैने युनिफ़ॉर्म सिविल कोड के पक्ष में बात की तो मुझे मुस्लिम विरोधी बता दिया गया। किसी खालिद की बात नहीं करूंगा क्योंकि बवाल मच सकता है और मुझे भी वो नाम दे दिया जाएगा जो मैं नहीं हूं। मुझे नहीं मालूम कि इसे पढ़ने के बाद मुझे क्या नाम दिया जाएगा, पर मैं सिर्फ़ मैं हूं वो नहीं जो वो मुझे नाम देना चाहेंगे।
अब किसी ने तख्ती उठा ये संदेश दिया कि जो शहीद हुआ था, उसे युद्ध ने मारा था पाकिस्तान ने नहीं। हां, सही है कि युद्ध बुरी चीज़ है, पर जो युद्ध हुआ उसके लिए कोई तो ज़िम्मेदार रहा होगा। कह तो ये भी सकते हैं कि कोई माचिस की तिल्ली किसी के घर का चूल्हा जलाती है और किसी का घर भी राख कर देती है। कसूरवार न माचिस को मानिए या न आग लगाने वाले को, बस आग को मान लीजिए और हो सके तो तो उसे जेल में भी डाल दीजिए। इसी बीच एक शाहीद के पिता जी का ब्यान आया ’मेरे बेटे को युद्ध ने नहीं, पाकिस्तान ने मारा।’ खैर मान लेता हूं दोनों ने अपनी अपनी बात कही और अपने अपने तरीके से कही। अपनी बात कहने के लिए दोनों आज़ाद है जैसे मैं अपनी बात लिखने के लिए। परन्तु ये भी सत्य कि युद्ध स्वयंभू वस्तु नहीं है? जैसे ब्यान देना हर किसी अधिकार है, उसकी प्रतिक्रिया आना भी सहज बात है। इसलिए किसी को भी तिलमिलाना नहीं चाहिए - न लैफ़्ट को न राइट को। ब्यान देने वाले ब्यान दे हट गए। उनके ब्यान का क्या मतलब रहा होगा, वही बता सकते हैं परन्तु लैफ़्ट राइट तो चल ही रही है और बड़े ज़ोर शोर से चल रही है।
अपने विचारों को अभिवयक्त करना संविधान में प्रदत एक अधिकार है, मगर वही संविधान इस आज़ादी को संयमित भी करता है। आप बोलिए, ऊंची आवाज़ में बोलिए मगर आवाज़ इतनी ऊंची भी नहीं होनी चाहिए कि किसी पड़ोसी की नींद ही हराम हो जाए। आप बोलिए, गुस्सा कीजिए, अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कीजिए, ज़ोर से बोलिए, मगर किसी को गाली देने का अधिकार न संविधान देता है न हमारे संस्कार। जो न संविधान की माने न संस्कार की तो आप तय कीजिए की वो किसकी मानता होगा। ज़रा सोचिए आप घर में कैसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। क्या मा या बहन की गाली देते हैं? नहीं देते तो घर के बाहर ये कायदे क्यों बदल जाते हैं। सरकारों से सवाल कीजिए, उनसे ज़वाब मांगिए। बहस कीजिए, मगर ज़ुबान संयमित रखिए। नारे लगाइए, विरोध कीजिए, मगर याद रखिए किसी मुल्क के ज़िंदाबाद से हमें तकलीफ़ नहीं मगर, ’भारत मुर्दाबाद’ बर्दाश्त से परे है। मीडिया का प्रश्नवादी होना ज़रूरी है। घटना भी दिखाइए, दुर्घटनाएं भी ज़रूर दिखाइए। अपने चैनल का पर्दा इतना भी अंधेरा न कीजिए कि लोगों को अंधेरे की ही आदत पड़ जाए। देश का रोशन चेहरा भी दिखाइए। बातें कीजिए, मगर बातें मत बनाइए। सहिष्णुता के मामले में इस देश का इतिहास अपने आप में प्रमाण है। हां, कमियां हर घर में होती है। उन कमियों की वजह से घर तोड़ लिया जाए तो कमियां हमारी हैं। याद रखिए - कौन सी बात कहां कैसे कहनी है, ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।