Saturday 8 October 2016

हिमाचल विश्वविद्यालय हिंसा

इधर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय प्राशासन राष्ट्रीय आंकलन एवं प्रत्यायन दल (नैक) से प्रदेश के इस उच्च शिक्षण संस्थान के लिए ए ग्रेड की आस लगाए बैठे हैं, उधर परिसर में खूनी संघर्ष चल रहा है। किसी के ज़िंदाबाद और किसी के मुर्दाबाद के नारों से गूंजते व खून से सने इस माहौल को देख कर वे हैरान ज़रूर हो रहे होंगे कि भोलेपन के लिए मशहूर इस शांतिप्रिय प्रदेश के उच्च शिक्षण संस्थान में ये कैसा घृणित व शर्मसार कर देमे वाला खूनी खेल चल रहा है। ऐसे में विश्विद्यालय की ग्रेडिंग करते समय नैक पशोपेश में ज़रूर पड जाएगा। अगर ए ग्रेड मिल भी गया तो उसके क्या मायने? विद्या के जिस परिसर में ज्ञान की महक का अहसास होना चाहिए, वहां अगर भय व असुरक्षा का वातावरण हो तो ग्रेड ए मिले या ज़ैड। जहां इल्म के चिराग जलने चाहिए, वहा अगर हिंसा का तांडव देखने को मिले, तो उस विश्वविद्यालय में अध्ययन की चाह रखने वालों पर क्या असर होगा। जिन हाथों में देश का नक्शा बनाने की कलम होनी चाहिए, उन हाथों में अगर पत्थर या तलवार आ जाए तो उस देश का नक्शा क्या होगा? जिन होस्टलों की अल्मारियां और मेज पुस्तकों से भरी होनी चाहिए, वहां अगर हॉकी, सरिये, ईंट और पत्थर का ज़खीरा मिले, तो अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि शिक्षा की क्या दशा है और यह किस दिशा में अग्रसर है। ये प्रदेश विश्वविद्यालय की कैसी तसवीर देश के सामने प्रस्तुत हो रही है।
नारेबाज़ी, पत्थरबाज़ी, लात-घघूंसे तो हिमाचल विश्वविद्यालय के लिए एक आम बात है। अगर इस विश्वविद्यालय के इतिहास में झांका जाए, तो हिंसक घटनाओं का काला इतिहास सामने आता है। आजकल विश्वविद्यालय में जो चल रहा है, उससे इसके इतिहास के लहू से सने पन्ने फ़िर सामने आ जाते हैं, जिन्हें हर हिमाचली बुद्धिजीवि भूलना चाहता है। 1979 में सुरेश सूद, 80 के दशक में नासिर खान व भारत भूषण और 1994 में कुलदीप ढढवालिया इस छत्र हिंसा में मौत का ग्रास बन गए थे। जिस भी छात्र संगठन को जब सुविधाजनक लगता है, वे प्रयेक कक्षा में जाकर कक्षाओं का बहिष्कार करवा देते हैं। कोई कक्षा न छोड़ने की हिमाकत नहीं कर सकता। अगर करता है, तो बहुत बड़ा जोखिम मोल लेता है। जो वाकई पढ़ना चाहते हैं वो जाएं तो कहां जाएं?
दरसल हिमाचल विश्वविद्यालय में हिंसा दोनों स्थितियों में होती है - जब प्रत्यक्ष चुनाव हो, तब भी और जब अप्रत्यक्ष हो, तब भी। पहली स्थिति में चुनाव के लिए हिंसा होती है, दूसरी स्थिति में चुनाव के कारण। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि विश्वविद्यालय में सक्रीय छात्र संगठन बड़े राजनैतिक दलों की शाखाएं हैं। ये दल विश्वविद्याल का इस्तमाल अपनी राजनैतिक हवा बनाने के लिए करते हैं। छात्र संगठनों के हाथ में जो पत्थर होता है, वो इनका अपना नहीं होता। इनके तो सिर्फ़ हाथ होते हैं और पत्थर राजनैतिक आकाओं द्वारा इन हाथों में थमाए जाते हैं। हिंसा का हल इस बात में है कि विश्वविद्यालय में राजनैतिक दल अपना हस्तक्षेप करना बंद कर दें। दलगत संगठनों पर रोक लगा कर भी प्रत्यक्ष चुनाव करवाए जा सकते हैं। कोई भी अपने स्तर पर चुनव लड़ सकता है। ऐसे में हिंसा होने के आसार भी बहुत कम हो जाएंगे और हर एक इच्छुक को प्रतिनिधित्व करने का अधिकार भी मिल जाएगा। मैरिट आधार पर प्रतिनिधी का चुनाव चुनावी हिंसा को तो रोक सकता है, परन्तु छात्र संगठनों के टकराव से उत्पन्न होने वाली हिंसा को नहीं। दूसरे यह आवशयक नहीं कि जो मैरिटोरियस है, वह एक अच्छा प्रतिनिधित्व भी दे पायेगा।
मां-बाप जब अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय भेजते है, तो उनकी आंखों में सपने होते हैं - मेरा बेटा ये करेगा, वो करेगा। उन्हें एक उम्मीद होती है कि उनका लाल उनके सपनों को साकर करेगा। परन्तु विश्वविद्यालय परिसर के आस-पास बिखरे कांच के टुकड़े कई मा- बाप के बिखरे सपनों की गवाही देते हैं। उन्हें ये पता भी नहीं चल पाता कब उनका लाल शीशे और पत्थर के खेल में उलझ गया। अपने बेटे को शीशे और पत्थर के खेल का शिकार होते देख उनके सपने दम तोड़ने लगते हैं। जब वे इस तरह का भयावह माहौल देखत है तो वे मन मसोस कर रह जाते हैं। जब तक इन लालों को अहसास होगा, तो शायद बहुत देर हो चुकी होगी। फ़िर वे ज़रूर कहेंगे- काश मेरे हाथ में पत्थर की जगह कलम होती, किताब होती, कागज़ होता, तो मैं हिंदोस्तान का एक नक्शा बनाता।

Saturday 1 October 2016

शिक्षण संस्थानों में हिंसा और गुरु-शिष्य के बीच बढती खाई

दिल्ली के सुलतानपुरी इलाके के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक का अपने ही शिष्य द्वारा कत्ल करना गुरु-शिष्य के बीच बिगड़ते रिश्ते की पराकाष्ठा है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि शिष्य गुरु का कत्ल तक करने पर उतर आया हो। हमारे प्रदेश में भी इस तरह की घटनाएं होती आयी हैं। 14 दिसम्बर 1998 में अरसू के एक सरकारी स्कूल के नवी कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य पर सरिये से वार किया जिसके कारण उनकी मौत हो गयी। अगस्त 2014 में संजौली कॉलेज में छात्रों ने प्रधानाचार्य व अन्य शिख्शकों के साथ मार-पीट की थी। चंद रोज़ पहले गंगथ में सरकारी स्कूल के एक छात्र ने सुबह-सवेरे स्कूल ग्राउंड में प्रधानाचार्य का गला पकड़ लिया था। उनकी गलती ये थी कि उन्होंने उस छात्र को एक विद्यार्थि की तरह अनुशासित होने की हिदायत दी थी। इसके अलावा दिसंबर 2014 में झारखंड के एक स्कूल के सातवी कक्षा के तीन छात्रों ने अपने अध्यापक को इसलिए मार डाला क्योंकि उक्त अध्यापक ने उन्हें धुम्रपान न करने की सलाह दी थी। फ़रवरी 2012 में चिन्नई के एक स्कूल में नवी कक्षा के छात्र ने चाकू से अपने अध्यापक की जान ले ली। अध्यापकों से थप्पड़बाज़ी, गालीगलौज, बदसलूकी जैसी घटनाएं तो अब आम होती जा रहीं हैं।
जहां हमारे देश का इतिहास गुरु-शिष्य की आदर्श परंपरा के उदाहरणों से भरा पड़ा है, वहीं आज गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती खाई एक ज्वलंत समस्या बन चुकी है। जिस देश में शिष्य अपने गुरु को देवतुल्य मानता आया है, वहीं आज इस रिश्ते में इतनी तलखी और हिकारत आ गयी है कि नौबत कत्ल तक पहुंच जाती है। विद्यालय में मुल्क के भविष्य को सींचा जाता है और भाग्य की रेखाएं खींची जाती है। इस मुकदस जगह पर इल्म के चिराग जला कर गुरु अपने शिष्य के अज्ञान के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करता है और उसे अनुशासन, संस्कार और शिष्टाचार का सबक पढ़ाता है। परन्तु जो कुछ घटित हो रहा है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि धीरे-धीरे शिक्षण संस्थान अनुशासनहीनता, बदज़ुबानी, मारपीट, और हिंसा का केंद्र बनते जा रहे हैं।
आज गुरु-शिष्य के संबंधों में वो आत्मीयता नहीं रही। अगर अपने शिष्य को सही राह दिखाना, पथभ्रष्ट होने से रोकना, गलती पर टोकना, उसे अनुशासित रहने का सबक सिखाना गुरु के लिए अब गुनाह हो गया है, तो आखिर इन शिक्षा के मंदिरों का औचित्य क्या है? यदि शिक्षण संस्थानों में ऐसा होता रहा, तो ऐसे असुरक्षित वातावरण में गुरु कैसे अपने कर्तब्य का निर्वाह कर पाएगा? क्या संत कबीर जी की ये पंक्तिया सिर्फ़ किताबी छलावा है?
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट
गुरु और शिष्य की बीच की तना-तनी का एक कारण यह है कि दोनों कक्षा में एक दूसरे से मिलते तो हैं, परन्तु उनमें संवाद नहीं होता। गुरु की बात शिष्य नहीं समझ पाता और गुरु शिष्य तक नहीं पहुंच पाता। पढ़ाई किताबों से नहीं, बल्कि दिल से होती है। यदि अध्यापक शिष्य को नहीं समझ पा रहा है, तो बेहतर है अध्यापक शिष्य को समझे। अध्यापक और शिष्य का रिश्ता वर्चस्व स्थापित करने का नहीं, बल्कि समझ का एक ज़हनी रिश्ता है।
गुरु-शिष्य के बीच बढ़्ती दूरियों के लिए अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। अभिभावक समझते हैं कि शिक्षक महज़ एक कर्मचारी हैं जिसे सरकार मोटी तनख्वाह दे रही है या उसे मोटी रकम फीस के रूप में अदा की जा रही है।वे भूल गए हैं कि गुरु-शिष्य का रिश्ता ग्राहक और दुकानदार का पेशा नहीं है। शिक्षण ऐसा कार्य है, जिसमें शिष्य में ज्ञान के प्रति जुनून व समर्पण की भावना होनी चाहिए और गुरु में अपने ध्येय के प्रति निष्ठा। बच्चों के मन में शिक्षक के प्रति आदर-भाव भरने की बात तो दूर, अभिभावक उनकी शिकायत करने या उनके विरुद्ध मुकद्दमा दायर करने के लिए आतुर रहते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों में गुरु के लिए सम्मान की भावना कैसे विकसित होगी? हालांकि विद्यालयों में एस एम सी गुरु-शिष्य-वालदेन के रिश्तों को सुदृड़ करने में अहम भूमिका निभा सकती है। परन्तु ज़्यादातर एस एम सी के सदस्य या तो निष्क्रीय हैं या फ़िर शैक्षणिक कार्यों को पीछे रख कर राजनीति में ज़्यादा रूची लेते हैं।
घर बच्चे की पहली पाठशाला होती है और मा-बाप पहले अध्यापक। बच्चों के मानस पटल पर घर के माहौल और वहां मिल रही तरबीयत का गहरा असर होता है। जिस अत्यधिक खुले वातावरण में आज बच्चे पल रहे हैं, उसने उनका भला कम और नुक्सान ज़्यादा किया है। अति सर्वत्र वर्जयेत अर्थात किसी भी चीज़ का आवश्यकता से अधिक होना नुकसानदेह होता है। कुछ माता-पिता ’बैस्ट पापा’ या ’बैस्ट मॉम’ कहलाने के चक्कर में अपने बच्चॊ की हर बात या मांग पर ’यैस’ कहने की होड़ में शामिल रहते हैं। इस होड़ में न माता-पिता, न ही बच्चे ये समझ पाते हैं कि ’नो’ शब्द की अहमियत कितनी है। ’यैस’ को सुनते-सुनते बच्चे को ’नो’ सुनना अखरने लगता है। अनुशासन में बंधना उसे बोझ लगने लगता है। ’दरवाज़ा खुला है’ वाली निति पर चलते-चलते पता भी नहीं चलता कि बच्चा कब हाथ से निकल गया और राह से भटक गया। वास्तव में आज उचित समय पर कहा गया ’नो’ कल बच्चे के भविष्य के लिए ’यैस’ साबित होता है। मा बाप को याद रखना चाहिए कि एक चिंगारी को बुझाने के लिए चुल्लु भर पानी भी काफ़ी होता है, मगर जब वह ज्वाला बन जाए, तो दमकल विभाग का टनों पानी भी कुछ नहीं कर पाता। उठते ज़ख्म को वक्त पर दवा न मिले तो वह नासूर बन जाता है। बच्चे की बेहतर परवरिश के लिए डांट व दुलार, फ़टकार व तारीफ़, थपेड़े व पुचकार की ज़रूरत होती है, ताकि उसका विकास एकतरफ़ा न हो। शायर राहत इंदौरी ने सही फ़रमाया है:
नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है, कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है.
जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नही होते सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है