Friday 23 September 2016

वसुधैव कुटुम्बकम

          इंसान क्या था क्या हो गया, कोई हिंदु, कोई मुसलमान हो गया - जब मनुष्य का जन्म होता है, तो वह ‘अल्ला हू अकबर‘ या ‘हर हर महादेव‘ का सिंहनाद करते हुए इस दुनिया में अवतरित नहीं होता। किसी पर भी ये ठप्पा नहीं लगा होता कि अमूक व्यक्ति हिंदू, मुसलमान, सिक्ख या ईसाई होगा। कोई इस तरह की चिप्पी भी नहीं लगी होती कि ये गोरा, ये काला, ये सांवला, ये निम्न जात का, ये ऊंची जात का। ख़ुदा ने तो इंसान पैदा किया है और वो भी एकदम बराबर, परन्तु वो खुद ही बंट गया - कोई बन गया हिंदू, कोई सिक्ख, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई ढीमका, कोई फ़्लां। हम इस संसार में उसके बंदे के रूप में आते हैं। मानव की एक ही जात है - इंसानियत और एक ही मज़हब है - मोहब्बत।
          गांधी जी ने कहा है - आंख के बदले आंख एक दिन विश्व को अंधा बना देगा। साबरमती के इस संत ने दया, सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए देश को बिना खड़ग और ढाल आज़ादी दिलाने का बीड़ा उठाया था और पूरे विश्व को मानवता का संदेश दिया था। भले ही ब्रिटिश प्रधान मंत्री, विन्सटन चर्चिल, ने गांधी जी को कटाक्ष करते हुए ’नंगा फ़कीर’ कहा था, परन्तु इसी नंगे फ़कीर को आज सारा विश्व सहस्राब्दी पुरूष और महात्मा के रूप में शीष नवाता हैं। ऐसा नहीं था कि वे कुर्ता नहीं खरीद सकते थे, मगर कुर्ता न पहन कर उन्होंने मानव को परस्पर दया, संवेदना, प्रेम और सहानुभूति का संदेश दिया था। उन्होंने मानव समाज को अहिंसा को अपनी जीवनशैली बनाने के लिए प्रेरित किया।
          आज के वैमनस्व, नफ़रत, हिंसा और कत्लेआम के दौर में उनका संदेश और भी अहम हो जाता है क्योंकि धर्म, जाति, रंग के आधार पर इतना खून बहा है कि भविष्य हमें कभी माफ़ नहीं करेगा। कहीं कोई लहु के चंद कतरों के लिए तरसता है. तो कहीं वही लहू ख़ुदा के नाम पर सड़कों पर बह रह होता है। कहा जा सकता है:
नफ़रतों का असर देखो जानवरों का बंटवारा हो गया,
गाय हिन्दू हो गई और बकरा मुसलमान हो गया 
                   
          ऐसा नहीं होता कि सूर्य की किरणें किसी पर मधम और किसी पर तेज़ पड़ती हैं और वर्षा की बूंदें किसी पर बरसती हैं और किसी को अछूता रख देती है। चांद का कोई मज़हब नहीं, ईद भी उसकी मनाई जाती है और करवा चौथ भी। रिलायंस हो या वोडाफ़ोन, कोई ऐसा नेटवर्क नहीं जो गोरे रंग वालों को बढ़िया और काले रंग वालों को घटिया सिगनल देते हैं या हिंदूओं के लिए बढ़िया चलते हैं और मुसलमानों के लिए रुक जाते हैं। काले का ख़ून भी लाल, गोरे का खून भी लाल; हिंदू का खून भी लाल, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई का खून भी लाल। न हमें ख़ुदा ने बांटा, न हमें प्रकृति ने बांटा, फ़िर इंसान ने इंसान क्यों बांट रखा है? संत कबीर कहते हैं:
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे,
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौ मंदे
          उर्दू शायर इकबाल ने बहुत ख़ूब कहा है - मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना सद्भाव सभ्यताओं को जोड़ता है, राष्ट्र को बनाता है। जाति, वर्ण, रंग, धर्म, कोई भी हो, वो एक दूसरे से न निम्न हैं, न एक दूसरे से ऊपर। धर्मवाद, रंगवाद, जातिवाद ऐसी बिमारियां है जो केवल मानव को बांटती हैं और सभ्यताओं को विनाश की ओर ले जाती हैं। किसी को ये हक नहीं कि वह जाति, धर्म और रंग के आधार पर किसी का हक छीनें, किसी को अपमानित करे और किसी का कत्ल करे। ये सभी धर्मों के उसुलों के विरुद्ध है। न धर्म टकराते हैं, न जाति, न रंग। टकराती तो वहशत है, टकराती तो संगदिली है। यदि मौहब्ब्त का उद्घोष करेंगे, तो संसार मोहब्बत की रोशनी से जगमगा उठेगा। यदि घृणा का उद्घोष करोगे, तो सारा संसार नफ़रत के अंधेरे में डूब जाएगा। हम इस दुनिया को प्यार-मौहब्बत से एक अचछी जगह बनाने आए हैं। वहशत और दहशत फ़ैलाने वालों का कोई धर्म नही होता। वे न कुरान के हैं, गीता के, गुरुग्रन्थ साहिब के, बाइबल के। वे सिर्फ़ इंसानियत के दुश्मन होते है।
          प्रत्येक मनुष्य को अपने सिद्धांतो पर चलने का अधिकार है, परन्तु समस्या तब पैदा होती है जब हम दूसरों के विश्वास व सिद्धांतों को गलत साबित करने पर तुल जाते हैं। धर्मांध हो कर हम हर दूसरों के विचारों, विश्वास को धर्म के चश्में से देखना आरंभ कर देते है। धर्म के मद में अंधे व्यक्ति को सिर्फ़ अपना ही धर्म उत्तम लगता है और दूसरों का धर्म निम्न।
          हम एक ही जड़ से उत्पन्न हुए पौधे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप जड़ से मोहब्बत करें और पेड़ से घृणा? इंद्रधनुष इसलिए सुंदर और दिलकश लगता है क्योंकि उसमें सात रंगों का अनूठा संगम है। हमारा प्रदेश, हमारा देश, हमारा संसार तभी सुंदर लगेगा अगर यहां विभिन्न, जाति, रंग और धर्म के लोग भ्रातृभाव से रहें। इस भाव को मन से निकाल दें कि दाढ़ी वाले दहशतगर्द और चॊटी वाले काफ़िर हैं।
          तो आओ! 'वसुधैव कुटुम्बकम’ और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को अपने जीवन का सिद्धांत बना कर एक कल्याणकारी संसार बनाने का प्रयास करें और मार्टिन लूथर किंग के इन शब्दों को याद रखें - हमें बंधुओं की तरह रहना होगा या फ़िर धूर्तों की तरह नष्ट होना होगा।"
मैं  अमन पसंद हूँ, मेरे शहर में दंगा रहने दो
लाल और हरे में मत बांटो, मेरी छत पर तिरंगा रहने दो


Tuesday 13 September 2016

बहुभाषिये बनो


    'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल' - जब जब भी हिंदी दिवस आता है या हिंदी भाषा का ज़िक्र होता है, तो इस भाषा के चिंतक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध कविता मातृभाषा के प्रति' से ली गयी इस पंक्ति का जिक्र अवश्य करते हैं। ऐसा करना उचित भी है और स्वभाविक भी क्योंकि ये वो भाषा है जिस में हमने सबसे पहले अपने ज़ज़बातों व एहसासों को शब्दों में अभिव्यक्त करना आरंभ किया। चाहे हमारे संविधान में बहुत सी भाषाओं को राष्ट्रीय मान्यता दी गयी है, परन्तु हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया है। टूटी-फ़ूटी ही सही, हिंदी देश के लगभग हर प्रांत और खंड में बोली या समझी जाती है। इस तरह यह देश को एक सूत्र में भी बांधती है।
    परन्तु, हिंदी भाषा को तरज़ीह देने के मायने ये भी नहीं है कि अन्य भाषाओं को हीन दृष्टि से देखा जाए। मुझे भाषा के उन पंडितों से सख्त गिला है, जो हिंदी को हिंदुओं से, उर्दू को मुसलमानों से, अंग्रेज़ी को गोरों से, पंजाबी को पगड़ी से जोड़ने की कोशिश करते हैं। कई हिंदी के हिमायती तो कह-कह कर नहीं थकते कि अंग्रेज़ी भाषा से गुलामी की बू आती है, लेकिन ख़ुद 'मे आई कम इन', 'बाय-बाय', और 'थैंक यू' जैसे अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने में अपनी बड़ाई मानते हैं। वास्तव में भाषाएं तो एक दूसरे की बहनें होती हैं। वे कभी नहीं टकराती। टकराती तो भाषा के प्रति हमरी मानसिकता है। अगर हिंदी हमारी मां है, तो अन्य भाषाएं हमारी मौसियां हैं। अगर मां के पास हमें अभिव्यक्ति का रास्ता नहीं मिलता, तो मौसियों की शरण में हमें रास्ता मिलता है।
    अगर हम अपनी-अपनी भाषाओं के दायरे खींच ले, तो न तो भाषाओं का आदान-प्रदान होगा, न उनका विकास होगा और न ही हम एक दूसरे की संस्कृति से पूरी तरह वाकिफ़ हो पाएंगे। अगर भाषाएं एक दूसरे से न मिलती, तो श्रीमद भगवद गीता को केवल हिंदु पढ़ पाते, कुरान मुसलमान ही पढ़ते, आदिग्रन्थ केवल सिक्ख जानता और बाइबल केवल ईसाईयों तक सीमित रहती, परन्तु इन पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध होने से विश्व के लोग इन्हें पढ़ पाते हैं।
    देश की आज़ादी में भी कई भाषाओं का योगदान रहा है। राष्ट्रगीत ’वंदे मातरम’ और राष्ट्रगान ’जन गण मन’ हमें बांग्ला ने दिए और ’सारे जहां से अच्छा...’ इकबाल की उर्दू भाषा में लिखी गई देश प्रेम की ग़ज़ल है। अगर ’दिल्ली चलो’ नारा हिंदी में दिया गया, तो क्रांति का प्रतीक ’इंक़िलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा उर्दू ज़बान का है। टैगोर की ’गीतांजली’ को ब्यापक सम्मान अंग्रेज़ी में अनुवादित होने के उपरांत मिला। चाहे राम प्रसाद बिस्मल ने कहा ’लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी’, फ़िर भी उनका उर्दू से बहुत लगाव था। उन्होंने बिस्मल को अपना तख़ल्लुस बनाया और ’सरफ़रोशी की तमन्न्ना आज हमारे दिल में है...’ जैसे उर्दू के तराने लिखे। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और दुष्यंत कुमार की गज़लों में हिंदी व उर्दू जिस तरह से हमामेज़ हुई हैं, वह साहित्य को एक ख़ूबसूरत आयाम देता है। जहां हिंदी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने देश की आज़ादी में अहम भूमिका निभाई, वहीं आधुनिक भारत के जनक राजाराम मोहन राय ने अंग्रेज़ी का इस्तमाल भारत पुनर्जागरण के लिए किया। उन्होंने इस भाषा को अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच सेतु स्थापित करने के लिए भी किया। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पंडित नेहरू. आर के नारायनन, राजा राव, किरन देसाई, अरुनधति रॉय जैसे भारतीय लेखकों ने अंग्रेज़ी भाषा का इस्तमाल करके ऐसी साहित्यिक रचनाएं  लिखी जिन से विश्व में देश का नाम रोशन हुआ है।
      हिंदी भाषा के कई ख़ैरख्वाह अक्सर हो-हल्ला मचाते हैं कि हिंदी खतरे में है, जबकि वास्तव में यह केवल बेवजह का डर है। आज हिंदी चीनी भाषा मैंडरिन के बाद विश्व में इस्तमाल की जाने वाली सबसे बड़ी ज़बान है। वास्तव में हिंदी भाषा में अपने को बनाए रखने की सिफ़्त मौज़ूद है। आज यह गुगल से होते हुई कई देशों में बोली, लिखी व पढ़ी जाते है।
    किसी भी भाषा के विस्तार और विकास के लिए ज़रूरी है, यह दूसरी भाषाओं के प्रति उदार रहे। माना जा सकता है कि अंग्रेज़ी इस नज़रिए से अव्वल आती है क्योंकि इस में दूसरी भाषा के अल्फ़ाज़ को अपने में समाहित करने की बहुत क्षमता है। जैसे हिंदी के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल दूसरी ज़बान में अल्फ़ाज नहीं मिलते, ठीक वैसे ही दूसरी ज़बान के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल हिंदी में अल्फ़ाज नहीं। एक-दूसरे की ज़बान के अल्फ़ाज़ को हमामेज़ करने ही सलाहियत ही ज़बान को विस्तार प्रदान करती है।
    हिंदी को मज़बूत और विकसित होने के लिए इसे आम लोगों के और निकट लाना होगा। भले ही कुछ साहित्य के पारखियों का मानना है कि कलिष्ट शब्दों के इस्तमाल से भाषा मज़बूत होती है और इसकी शान बढ़ती है, परन्तु ऐसा असलियत में नहीं होता। कठिन व कलिष्ट भाषा का इस्तमाल साहित्यिक दृष्टि से तो उचित हो भी सकता है, परन्तु इस तरह यह जनमानस की भाषा नहीं बन सकती। जो भाषा जनमानस की नहीं बन सकती, वह कभी विकसित नहीं हो सकती।
    भाषा किसी की बांदी नहीं होती। इसे किसी खूंटे से नहीं बांधा जाना चाहिए अन्यथा यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है जिसे ज़ीने के लिए दाना तो मिलता है, पर उसकी ऊड़ान कुंद रह जाती है। हिंदी भाषा की सादगी, उर्दू की लज़्ज़त, और अंग्रेज़ी की ख़नक मिल जाए तो भाषा का ज़ायका वैसा होगा जैसा अपने ख़ेत की राजमाह की दाल का जिसमें टमाटर का तड़का लगा हो।

Sunday 11 September 2016

सिमटते मानव मूल्य

जब तक इंसानियत ज़िंदा है, तब तक इन्सान ज़िंदा है। इतिहास गवाह है कि अमानवीय तौर तरीके हमेशा संसार को विनाश के गर्त की ओर ही धकेलते हैं और मानवीय मूल्यों ने ही हमेशा संसार को रोशनी दी है। वो इंसानियत का ही तकाज़ा था जिस के चलते 23 वर्षीय विमान परिचारिका नीरजा भनोत ने वीरतापूर्ण आत्मोत्सर्ग करते हुए 1996 में अपहरित विमान पैन ऍम 73 में सवार कई यात्रियों और बच्चों की ज़ान बचाई। अगर इंसानियत न होती, तो जुलाई 2016 में भोपल के कृष्णा नगर का 23 वर्षीय दीपक अपनी जान गंवा कर 20 लोगों को डूबने से न बचाता। अगर इंसानियत न होती, तो कैलाश सतयार्थी व मलाला युसुफजई नौनिहालों के बचपन को बचाने के लिए आंदोलन न करते। अगर मानवीय मूल्य ज़िंदा न होते तो महात्मा गांधी, मदर टेरेसा, नैल्सन मंडेला जैसे लोग भी मज़लूम लोगों के शॊषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद न करते। अगर स्वार्थपूर्ण और विलासिता भरा जीवन ही सबकुछ है, तो अमेरिका के राष्ट्र्पति होते हुए अब्राहम लिंकन ईमानदारी को अपनी जीवनशैली क्यों बनाए रखते?
आज हमारी जीवनशैली इस जुमले पर काफ़ी हद तक केंद्रित हो गयी है - मुझे क्या लेना? पड़ोसी के घर में आग लगे तो लगे, मुझे क्या लेना? कोई अकेला पड़ा बिमार मरे, तो मरे, उसकी तिमारदारी क्यों करे, मुझे क्या लेना? हम भूल रहें हैं कि जिस दरख़्त के साये में आज हम धूप की तपिश से निजात पा रहे हो, कई सालों पहले उसे उगाने वाले ने ये नहीं कहा था: " "मुझे क्या लेना।" उर्दू के मारुफ़ शायर डॉ नवाज़ देवबंदी साहब साहब कहते हैं:
उसके कत्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया
मेरे कत्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है
आज़ सबसे अधिक विषादित करने वाला पहलू यह है कि संसार में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो ज्ञान और जानकारियों से सराबोर हैं, परन्तु ऐसे लोगों की बहुत कमी हैं जिनमें मानव मौज़ूद है। अस्पताल में कोई तरस रहा होता है कि ख़ुदा के नाम पर उसे ख़ून के चंद कतरे मयस्सर हो जाए, उधर ख़ुदा के नाम पर सड़कों पर लोग ख़ून बहाने पर आमादा होते हैं। कोई बेचारा दुर्घटना के कारण सड़क पर तड़प रहा होता है और कोई उसका वीडिओ बना कर फ़ेसबुक पर अपलोड करने में मसरूफ़ होता है। कहीं पुलिस या अदालत आड़े-तिरछे सवाल न पूछ ले, इस डर से उसे अस्पताल पहुंचाने की कोशिश कोई-कोई ही करता है। अगर जगह कम भीड़-भाड़ वाली हो, तो कोई गिद्ध दृष्टि गड़ा कर उसका माल हड़प्पने की ताक में रहते हैं।
मानवीय मूल्य मनुष्य का ज़हनी और रुहानी गुण है। इन गुणों का विकास मनुष्य के चरित्र निर्माण के साथ किया जा सकता है। ये कार्य शिक्षा के माध्यम से बख़ूबी किया जा सकता है। दक्षिण अफ़्रीका के पहले लोकतांत्रिक राष्ट्रपति, नैल्सन मंडेला, ने कहा था, "शिक्षा सबसे ताकतवर हथियार है, जिससे विश्व को बदला जा सकता है।" अपने घर की देहलीज़ को जब बच्चा लांघता है, तो हर सचेत मा-बाप की सर्वोपरि इच्छा होती है कि उनके बच्चे को बढ़िया शिक्षा मिले क्योंकि अविद्याजीवनं शून्यं - शिक्षा के बगैर जीवन शून्य है। हम भारतीय ज्ञान की देवी सरस्वती के समक्ष प्रार्थना करते हैं - तमसो मा ज्योतिर्गमय। वास्तव में अज्ञानता से बड़ा कोई अंधेरा नहीं और ज्ञान से बड़ा कोई प्रकाश नहीं।
परन्तु शिक्षा क्या है और इसका उद्देश्य क्या हो? पढ़ना-लिखना आ जाए, अंगूठे की छाप की जगह हस्ताक्षर करना आ जाए, डिग्री प्राप्त करना, फ़िर नौकरी हासिल करना और पैसा कमाने की मशीन बनना, क्या यही शिक्षा है? शिक्षा का मतलब केवल जानकारी इकट्ठा करना ही नहीं है, बल्कि एक बेहतर इन्सान बनना इसका मूल उद्देश्य है। मूल्यहीन शिक्षा अनर्थकारी हो सकती है। मानव मूल्यों को छोड़ कर केवल मस्तिष्क से शिक्षित होने का मतलब है समाज के लिए दानवी प्रवृति वाले व्यक्ति को तैयार करना। ज्ञानी तो रावण भी कम नहीं था, परन्तु नैतिकता उसके चरित्र में नहीं थी। नतीज़ा - लंका का विध्वंस।
नि:संदेह शिक्षा का उद्देश्य बेहतर इन्सान बनना है, जो साफ़ और समर्पित ह्र्दय से काम करें। मूल्यहीन शिक्षा उस खुदा की तरह है, जो खुदा तो है पर उसमें फ़रिश्तों जैसा दिल नहीं। फ़रिश्तों का दिल नहीं, तो ख़ुदा कैसा और अगर इंसानियत नहीं, तो इंसान कैसा? मनुष्य चाहे कितना ही सुंदर हो, वह कितना ही सुरीला क्यों न बोलता हो, परन्तु यदि वह मानवीय मूल्यों से शून्य है, तो उसमें और पशु में कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं।
मनुष्य कोई बेज़ान झोला नहीं जिसमें जानकारी या तथ्य समेटे जाएं। मानवीय मूल्यॊं को शिक्षा के साथ समाहित करने का दायित्व मा-बाप और शिक्षक पर आता है। महान दार्शनिक अरस्तु ने सही फ़रमाया है, " मानवीय मूल्यों की शिक्षा देने का सब से बढ़िया तरीका है, अपने शिष्यों के साथ व्यवहार में इसे अम्ल में लाना।" उपदेश से बेहतर है उदाहरण प्रस्तुत करना।
शिक्षक अपने शिष्यों को केवल सूचना और तथ्यों का ही अंतरण नहीं करता, बल्कि उनमें इस ज्ञान को विवेक के साथ इस्तमाल करने की सलाहियत को भी निखारता है। शिक्षा केवल आजीविका कमाने के लिए ही नहीं, बल्कि यह भी सिखाती है कि आदर्श और नैतिक जीवन समाज का स्तंभ होता है। शिक्षा व पढ़ने-लिखने का मूलभूत उद्देश्य विद्यार्थी को एक अच्छा इन्सान बनाना है न कि पढ़े-लिखे शैतान। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं:
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी

Wednesday 7 September 2016

बी ए में खराब परिणाम


हाल ही में हिमाचल विश्वविद्यालय का बी ए पहले समैस्टर का परिणाम आया। परिणाम 2% देख कर थोड़ा ठिठका, थोड़ा सहमा क्योंकि विश्वास नहीं हो रहा था। सोचा कहीं छापने में गलती हो गयी होगी। दूसरे समाचर पत्र खंगाले, पर परिणाम 2% सही ही छपा था। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसा परिणाम भी आ सकता है। आश्चर्य हुआ क्योंकि ऐसा परिणाम तो अक्सर चार्टड अकॉउंटैंट की परीक्षाओं में देखने को मिलता है। इस परीक्षा में बहुत सारे 10+2 के टॉपर्ज़ भी लुढ़क गए। अब जब विश्वविद्यालय स्पष्ट कर चुका है कि परिणाम बिल्कुल दुरुस्त है, तो छात्रों का मन विषादित होना स्वभाविक है।
      इतना ख़राब परिणाम है, तो सवाल तो उठेंगे ही। आखिर ऐसा क्या हो गया कि 10+2 में टॉप करने के बावजूद भी छात्र बी ए में इस कदर फ़िसड्डी साबित हो गए। वास्तव में उच्च शिक्षा में सफ़लता इस बात पर निर्भर करती है कि विद्यार्थि निचले स्तर से कितना कुछ सीख कर व पढ़-लिख कर अए हैं। जैसे किसी ईमारत की बुलंदी और मज़बूती इस बात पर निर्भर करती है कि इसकी नींव की ईंट कितनी पायदारी और करीने से गढ़ी गयी है, ठीक वैसे ही किसी राष्ट्र की उन्नति, गरिमा व मुस्तक्बिल इस बात पर निर्भर करते हैं कि उस राष्ट्र की तालिमी बुनियाद कितनी पुख़्ता है। रूसा के तहत आए इस बेहद निराशाजनक परिणाम के झटके ने तालीम की बुनियाद की मज़बूती और पुख़्तेपन की पॊल खोल कर रख दी है।
      ’पप्पु पास हो गया’ वाली निति ने कैसे-कैसे पप्पु पैदा कर दिए हैं, ये किसी से छुपा नहीं है। ये बात तो विभिन्न सर्वेक्षणों में भी बार-बार सामने आती रही है कि पांचवी पास पप्पु अपना नाम तक नहीं लिख सकते; आठवी पास सामान्य गुणा, भाग नहीं कर पा रहा है। नवीं कक्षा में पहुंचे पप्पुओं की जो हालत होती है, उस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन पप्पुओं को पढ़ाते-सिखाते गुरुजी पर क्या गुज़रती होगी। वो इस पशोपेश में रहते हैं कि वर्णमाला, जोड़-घटाव, गुणा-भाग सिखाया जाए, तो पाठयक्रम का क्या करें; पाठयक्रम पूरा करें तो बच्चों की समझ में कैसे आए। यहां तक कि 10+1 के बहुत से विद्यार्थियों की हालत ये है कि वे एक हिंदी का वाक्य तक शुद्ध लिखने का साहस नहीं जुटा पाते। यह हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी का आलम है, अंग्रेज़ी के टैंसिज़ का इसतमाल तो बूढ़ी का ब्याह समझो। इस पर तुर्रा ये कि कई विद्यालय ऐसे भी हैं जिन्हें आदर्श धोषित किया गया है, परन्तु यहां शिक्षकों के कई अहम पद खाली पड़े हैं। ऊपर से खिचड़ी का पचड़ा, उसका लेखा जोखा, कभी गैस सिलैंडर नहीं मिलता, कभी दाल खत्म, तो कभी चावल की आपूर्ति नहीं। उधर विभाग को तरह-तरह की जानकारियां व आंकड़े भी अध्यापकों को ही तैयार कर ऑनलाइन भेजने पड़ते हैं। फ़िर परीक्षा परीणाम ख़राब आने का डर। अगर चुनाव आ गए तो इस एक काम के लिए सारी पढ़ाई ठप्प। अध्यापक क्या-क्या करे? आखिर इन्सान है, कोई निंजा नहीं। गुरुजी की स्थिति उस सौतेले बच्चे की तरह है जो अगर हाथ धोता है, तो मां कहती है कि पानी बर्बाद कर रहा है, अगर नहीं धोता है, तो उसे गंदा बच्चा कह कर दुत्कार दिया जाता है। किसी ने ठीक कहा है - परेशान किया हुआ अध्यापक कभी बेहतर अध्यापन नहीं कर सकता।
      सवाल ये भी उठता है कि आखिर 10+2 कक्षा में ये छात्र इतने अछे अंक कैसे ले पाए। बोर्ड द्वारा आयोजित दसवी और बारहवी कक्षा की परीक्षा की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठता है। बोर्ड भले ही बड़े-बड़े दावे करता हो, परन्तु वास्तव में इन परीक्षाओं के दौरान जो आलम होता है, उस से यही ज़ाहिर होता है कि जल्द ही हम बिहार के बराबर होने वाले हैं। कुछ अच्छा परिणाम देने के दबाव में, तो कुछ अपनी स्थानीय संबधों के चलते नकल के कार्य में हाथ बंटाते हुए देखे जा सकते हैं। इसका परिणाम ये होता है कि बोर्ड की परिणाम प्रतिशतता तो बेहतरीन हो रही है, परन्तु शिक्षा का हुलिया बद से बदतर होता जा रहा है और पप्पुओं की फ़ौज़ बढती जा रही है। परिणाम की प्रतिशतता अलग बात है और शिक्षा का स्तर ऊंचा होना अलग बात।
      ये देखना भी लाज़िमी है कि क्या हमारी उच्च शिक्षा व बुनियादी शिक्षा के ढांचे में सामंजस्य भी है या नहीं। मसलन आठवी तक तो पास प्रतिशतता का महत्व खत्म है, उसके बाद जिसने 33% अंक हासिल करने के लिए इतने पापड़ बेले हों, उस के लिए 45% का आंकड़ा मुश्किल तो ज़रूर है।
      आंग्रेज़ी में कहावत है - असफ़लता सफ़लता के स्तंभ होत हैं, परन्तु ’पप्पु पास हो गया’ की नीति के चलते बच्चा न असफ़लता और सफ़लता में फ़र्क जान पा रहा है और न ही गलतियों से सबक ले पा रहा है। बाल बुद्धि समझती है कि गलत हो या ठीक, उसे तो अगली कक्षा में जाना ही है।
      इसलिए आज आवश्यकता है कि शिक्षा के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन किया जाए। बच्चों पर इतने सारे प्रयोग उचित नहीं। प्रयोगों के बावजूद अगर लेखा-जोखा शून्य हो, तो शिक्षकों, अभिभावकों और छात्रों के विरोधी स्वर मुखर होना स्व्भाविक है। परन्तु लगता है हुक्कमरान कहीं और व्यस्त है और शिक्षा सियासत के पेचोख़म में उलझ कर रह गयी है। अगर अब भी न संभले तो हम द्वितीय और तृतीय श्रेणी का राष्ट्र तैयार करने की ओर अग्रसर हैं। यही इल्तजा कर सकता हूं:
ठोकरें खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का नसीब,
राह के पत्थर तो अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं।