Sunday 21 August 2016

अध्यापक दीवस या रस्म अदायगी


          एक बार एक छात्र ने क्लास टैस्ट में 2/10 अंक किए। नाराज़ अध्यापक ने उसके टैस्ट पेपर में नोट लिखा - पूअर चाइल्ड’! अगले दिन अध्यापक ने देखा कि उनके नोट के नीचे छात्र के पिताजी ने टिप्पणी की - शागिर्द की कारकर्दगी से पता चलता है कि उस्ताद कितना काबिल है!भले ही पिता जी की यह टिपाणी अध्यापक को नगंवारा गुज़री हो, उसके अहम को ठेस पहुंचाती हो और इस टिप्पणी से वह तिलमिला उठा हो, परन्तु काफ़ी हद तक यह हकीकत को ही ब्यां करती है। जब राजा धनानंद ने चाणक्य को भिक्षा मांगने वाला साधारण ब्राहमण कह ज़लील किया और अपने दरबार से खदेड़ दिया, तो उसने कहा था, "अध्यापक कभी साधारण नहीं होता। निर्माण और विध्वंस उसकी गोद में खेलते हैं।" चाणक्य का ये कथन आवेश में कहा गया महज एक सियासी जुमला नहीं था, बल्कि उसने इसे सिद्ध कर दिखाया था। एक हकीर बालक, चंद्र्गुप्त, को शिक्षित कर उसने नंद वंश का विध्वंस किया और उसे राजगद्दी पर बिठा दिया था। बेहतर मुल्क के लिए बेहतर तालीम का होना लाज़मी है और बेहतर तालीम के लिए बेहतर शिक्षक लाज़मी है! चिकित्सक, अभियंता, नेता, अभिनेता, राजनेता, राजनीतिज्ञ, मंत्री, महामंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, वक्ता, प्रवक्ता, अधिवक्ता, अध्यापक, प्राध्यापक, ब्यापारी, समाजसेवी - कोई भी हो, कितने ही बड़े पद पर आसीन हो, कितने ही महान हो, सभी के पीछे अध्यापक का ही हाथ होता है! विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय देश के भविष्य के लघुचित्र होते हैं। जहां माता-पिता बच्चों का लालन-पालन करते है, वहीं अध्यापक उसे तराशने काम करता है! वक्त के बहते दरिया के साथ शिक्षा भी बदली, इसके आयाम बदले, इसकी दिशा और दशा बदली। यह गुरूकुलों और शांतिनिकेतनों से निकलती हुई आज विशाल ईमारतों वाले मॉडल स्कूलों तक आ पहुंची। परन्तु इस सारी कवायद में अध्यापक की शक्लोसूरत व प्रतिष्ठा का जो कुछ हुआ, वो एक शिक्षक के लिए काबिलेफ़क्र तो कतयी नहीं हो सकता। इस सफ़र में उसने बहुत कुछ खो दिया और बहुत कुछ उस से छीन लिया गया। गोविंद से भी ऊपर का दर्ज़ा रखने वाला अध्यापक आज हर किसी की उलाहना का शिकार व प्रताड़ना का भागी बन गया। अभिभावक उससे निराश हैं, अफ़सर नाखुश हैं व सरकारें उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं। अगर कुछ बचा है, तो सिर्फ़ पांच सितंबर यानि अध्यापक दिवस। इस दिन ज़रूर उसके सम्मान में मन की बातें आअयोजित की जाती हैं, उसकी गाथाएं गायी जाती हैं, और महान लोगों द्वारा उसके बारे में कहे गए लज़्ज़त भरे अल्फ़ाज़ का खूब बखान होता है। कुछ एक जैसे-तैसे जुगाड़ कर ईनाम भी प्राप्त कर लेते हैं। मगर इस रस्मअदायगी के बाद क्या होता है? बस वही उल्लाहना और प्रताड़ना। कोई शिष्य अच्छे अंक ले, तो वो शिष्य मेहनती और होशियार और अगर कहीं परीक्षा परिणाम का ज़ायका ज़रा सा बिगड़ गया, तो गुरुजी नलायक। आखिर ऐसा क्या हुआ, जिस समाज ने गुरु को ज्ञान का सतत झरना मान कर सर आंखों पर बैठाया, आज उसी समाज के लिए अध्यापक का ज़ायका क्यों बिगड़ता चला गया? आइए समझने की कोशिश करते हैं।    
     हमारे देश की शिक्षा का जो ढांचा है उसे देख कर वो कहावत याद आती है - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। दरसल हुआ ये कि, मार्फ़त भ्रष्ट तंत्र, अध्यापन के नेक व्यवसाय में कई किस्म के ऐसे गुरु घुसते चले गए, जिनका इस तंत्र में मंत्र चलता था और जिनका मकसद सिर्फ़ तनख़्वाह लेना रहा। चाहे ऐसे गुरुओं की तादाद बहुत ज़्यादा नहीं, पर बहुत कम भी नहीं है। मछली चाहे एक ही क्यों न हो, तालाब तो सारा गंदा कर ही जाती है और यहां तो कई मछलियां हैं। यहां तक तो फ़िर भी बात जम सकती थी, क्योंकि यह संभव नहीं कि सभी अध्यापक प्रखर विद्वान हो और तमाम सलाहियतों से सराबोर हो। निरंतर प्रयास से अध्यापक इस कमी को दूर कर सकता है। परन्तु हमारे गुरुओं की खूबी है कि एक बार गुरुजी बन गये, फ़िर ज्ञान की सारी किताबें बक्से में बंद हो जाती है और बक्सा भी ऐसा कि खोले नहीं खुलता। बात यहां भी रुक सकती थी, परन्तु अपनी सलाहियत बढ़ाने की बात तो दूर, इन गुरुओं ने अपने कारनामों की जो मिसालें पेश करनी शुरु कर दी, उनसे समाज में अध्यापक की प्रतिष्ठा का गिरना अवश्यमभावी हो गया। छात्रों को सुधारने के लिए डांट-डपट व हल्का फ़ुलका दंड स्वीकार्य हो सकता है, परन्तु उनसे बद्ज़ुबानी, उन्हें बेरहमी से पीटना, उनके समक्ष नशा करना, उनसे नशे की वस्तुएं मंगवाना, उन्हें परीक्षाओं में नकल का भरोसा देना, यहां तक कि छात्राओं से दुराचार जैसी घटनाएं भी सामने आने लगी, जिन्होंने कहीं न कहीं उन गुरुओं की प्रतिष्ठा व आबरू को भी दाग़दार किया है, जो वास्तव में शिक्षा जगत को अपनी सलाहियतों और समर्पण भाव से रोशन करते रहे हैं। क्या करें, जब छछूंदर के सर पर चमेली का तेल मिल जाए तो गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है।  
     मन को विषादित करने वाला पहलू यह भी है कि कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। वास्तव में जब घराट ढीला हो जाता है और गेंहूं गिला, तो अच्छी किस्म का आटा नहीं मिल सकता। मायने ये कि नीति निर्धारक, निर्णायक मंडल व अध्यापक सभी का शिक्षा के प्रति दायित्व है। एक-दूसरे पर दोष मड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा। मैं-मैं और तू-तू की इस कशमकश में खनियाज़ा बेकसूर विद्यार्थि को भुगतना पड़ रहा है,  क्योंकि दो बड़े हाथियों की लड़ाई में पिसती तो बेचारी हरी घास ही है।
     भले ही आज अध्यापक का व्यवसाय कांटों से भरा हुआ है, भले ही आज़ गुरु का रुतबा घटा है, परन्तु इस बात में भी कोई शक नहीं कि आज भी बेहतरीन शिक्षकों की समाज़ कद्र करता है और विद्यार्थि इज़्ज़त! एक अच्छे अध्यापक को मा-बाप से भी ऊंचा दर्ज़ा देते हुए महान दार्शनिक अरस्तु ने एक बार कहा था, "जो बच्चे को बेहतर तालीम देता है, उनका सम्मान उनसे भी ज़्यादा होना चाहिए, जिन्होंने उन्हें पैदा किया है!" नि:संदेह विद्यार्थि अच्छे अध्यापक को हमेशा याद रखता है, परन्तु यह भी कम ठीक नहीं कि वह बुरे अध्यापक को भी नहीं भूलता! इसलिए, गुरुवर, जब-जब भी नई नस्ल की बात उठेगी, तो एक सवाल ये भी होगा - आखिर इस नई नस्ल को किसने तैयार किया? फ़िर आपका नाम भी सर्वोपरी आएगा।



Wednesday 17 August 2016

इंस्पेकटर साहब पधार रहें हैं


    बायोमीट्रिक मशीन लगने के शुरुआती दौर की खलबली व तिलमिलाहट अभी ठंडी भी नहीं हुई है और इसकी टीस व कसमसाहट से बहुत सारे शिक्षक अभी उबरने की कोशिश कर ही रहे हैं, कि सरकार ने शिक्षा व्यस्था को चाक चौबंध रखने के लिए एक और कील ठोकने का मन बना लिया है। इन्स्पेक्शन कैडर सैल के गठन के लिए बाकायदा मंजूरी मिल गयी है, वो भी पूरे 94 लोगों की फ़ौज़ के साथ। लगता है सरकार की समझ में अब जा कर धीरे-धीरे ये उतरना शुरु हो गया है कि आर एम एस ए और एस एस ए के भयावह व चिंताजनक नतीज़ों के पीछे सशक्त मिगरानी व्यवस्था का न होना एक बहुत बड़ा कारण रहा है। इन परियोजनाओं को कार्यान्वित करवाने के लिए कभी कागज़ी हवाई ज़हाजों का सहारा लिया गया तो कभी कागज़ की कश्तियों का, परन्तु कागज़ी ज़हाज़ व कश्तियां थोड़ी देर के लिए तसल्ली और खुशी तो ज़रूर देते हैं, पर इन मे बैठकर न उड़ा जा सकता है न समुद्र की सैर की जा सकती है। इस बार लगता है, शायद, साहब लोग संज़ीदा हैं क्योंकि: 
ठोकरें खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का नसीब,
राह के पत्थर तो अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं।
निरिक्षण सैल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज शायद निरिक्षण आज शायद ही किसी आला अफ़सर को स्कूलों के निरिक्षण की फ़ुरसत मिलती है क्यॊकि विभाग ही बहुत विस्तृत है। कभी अगर इस काम के लिए वक्त निकाल भी लेते हैं, तो सिर्फ़ तभी अगर कोई शिकायत आलाकमान तक पहुंचती है। शिक्षा की चिंता शिक्षक, आला अफ़सर, सियासतदां सभी जताते हैं, पर हुक्म, आशा और चाहत से आगे बात नहीं बढ रही! पूरे वर्ष ये जानने की ज़हमत नहीं की जाती कि अमूक विद्यालय में पठन-पाठन का कार्य सही मायनों में चल रहा है या नहीं। वर्षभर कुंभकर्णीय नींद मे सोए रहना, परिणाम आने पर चौकन्ने हो जाना और तुरन्त अध्यापकों पर तबादले की तलवार लटका देना या वेतन वृद्धि रोकने का डर दिखाना न न्यायसंगत है न तर्कसंगत। अगर ये हल है तो कभी समस्या समाप्त नहीं होगी, बल्कि और विकट रूप धारण करेगी। तबादले का मतलब है समस्या एक जगह से दूसरी जगह तबदील हो रही है। 100% परीक्षा परिणाम के ठप्पे के चक्कर में देश का कोना-कोना बिहार ज़रूर बन जाएगा। एक समस्या के शॉटकट हल से दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर लेना कोई अक्लमंदी नहीं क्योंकि रोशनी की खातिर किसी का घर नहीं जलाया जाता।
    शैक्षणिक माहौल को दुरुस्त करना हालांकि आसान सफ़र नहीं जान पड़ता, फ़िर भी इन्स्पेक्शन सैल की स्थापना सरकार की नेक मंशा की ओर ईशारा ज़रूर कर रही है। यह सैल अपने मंतब्य व गंतब्य को साध पाएगा या नहीं, ये अभी कहा नहीं जा सकता क्योंकि एस एस ए व आर एम एस ए की शुरुआत भी काफ़ी जोशोख़रोश के साथ शुरु हुई थी औए आलम आज क्या है, जिक्र करने की ज़रूरत नहीं। नए सैल के अहम पदों पर वही लोग विराज़मान होंगे जो प्रोन्नति की फ़ेहरिस्त में सबसे आगे हैं - मतलब नई गाड़ी में वही पुराने चालक और परिचालक होंगे, और जिन मुसाफ़िरों को वो हांकेगे, वे भी पुराने। ऐसे में वे हिचकोले खाती हुई इस ब्यवस्था से बाहर आ कर इसे ढर्रे पर ला पाते हैं या नही, कहा नहीं जा सकता मगर, पर उम्मीद ज़रूर की जा सकती है। 
    निरीक्षण सैल की स्थापना व बायोमीट्रिक मशीनों से हाज़िरी - ये दोनो कदम इस बात के द्योतक है कि सरकार और शिक्षा के अलम्बरदार मन में ये बिठा चुके हैं कि गुरुजी अपने कर्तब्य के प्रति कोताही बरत रहे हैं। पर क्या सभी ऐसे हैं? ऐसा हरगिज़ नहीं माना जा सकता। अगर सरकार और साहब लोग ये मान ही बैठे हैं, तो ये गौरतलब होगा कि निरीक्षण सैल ऐसे गुरुओं की निशानदेही कर पाता है या नहीं। अगर यह ऐसा नहीं कर पाता तो इसकी भी जवाबदेही तय हो क्योंकि आखिर 94 लोगों की फ़ौज का कुछ तो औचित्य हो। जांच अधिकारी साहब, रपट जरा ध्यान से बनाइगा क्योंकि गुरुजनों को इतना भी कमज़ोर न आंकिएगा और कहीं गुरुओं की निगहबानी के चक्कर में सैल जांच रपट और मुकद्दमों की फ़ाइलों में उलझ कर न रह जाए। ऐसा न हो कि शिकार करने जो निकले थे, खुद शिकार हो जाए।   
    चलो ये भी मान लेते हैं कि इन्स्पेक्शन सैल गुरुओं को कसने में कामयाब हो जाएगा, पर इसके अलावा भी शिक्षा ब्यवस्था में कई झमेले हैं। ’पप्पु पास हो गया’ वाली नीति, जो शिक्षा और शिक्षक के लिए सरदर्द बनी हुई है, से कब मुक्ति मिलेगी? अमेरिकी सोच रखने वालों द्वारा दिए गए इस मर्ज़ की दवा मालूम नहीं कब मिलेगी। केंद्र में शिक्षा मंत्री आते हैं, ’पप्पु पास हो गया’ वाली नीति को कोसते हैं और जुमले फ़ेंक कर निकल जाते हैं। ये कह कर कि सुझाव मांगे रहे हैं, जुमलों से ही तसल्ली कर ली जाती है। हालांकि बहुत से राज्यों ने खुलकर इस नीति का विरोध किया है, पर बात कहां अड़ी है, खुदा जाने। लंबे समय तक शिक्षकों के पद खाली रहने की रिवायत से भी क्या कभी निज़ात मिलेगी? अध्यापक को कागज़ों की मग्ज़खपाई से कब छुट्टी मिलेगी? जनगणना, पशुगणना, चुनाव- कब वह इन सब से छूट कर गुरुजी सिर्फ़ पप्पुओं की सुध ले पाएगा? ज़्यादा देर ठीक है। कहीं देर न हो जाए:
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं। 
    इतने सारे झमेलॊं के चलते, तालीम के बिगड़े हुए हुलिये को सुधारने के लिए भले ही इन्स्पेक्शन सैल नकाफ़ी है, फ़िर भी यह एक बड़ी पहल है। इसके पीछे सोच और मंशा सकारात्मक है, पर पहला-पहला ज़ाम है, साहब, ज़रा संभल कर।
   




Thursday 11 August 2016

क्योंकि बायोमिट्रिक मशीन झूठ नहीं बोलेगी


सरकारी विद्यालयों से नदारद व लेटलतीफ़ गुरुओं के लिए ये पचा पाना मुश्किल हो रहा है कि शिक्षा विभाग हर विद्यालय में उनकी हाज़री बायोमिट्रिक छाप द्वारा दर्ज़ करवायेगा और बाकायदा इस पर निगाह भी रखेगा! वे कसमसा रहे हैं और झुंझलाहट में अगर-मगर वाले कई सवाल कर रहे हैं! उनकी मनोस्थिति को इस तरह बयां किया जा सकता है - मसरूफ़ थे सब अपनी ज़िंदगी की उलझनों में, ज़रा सी ज़मीन क्या हिली कि खुदा याद आ गया! इस लिए वक्त मशीन की इस्लाहियत पर सवाल दागने का नहीं, बल्कि ये सोचने का है कि अगर देरी से आए और जल्दी खिसक गए तो अब खैर नहीं क्योंकि मशीन झूठ नहीं बोलेगी! अगर आप इससे छेड़-छाड़ करने की सोच रहे हो तो बता दें ये गैरकानूनी है! अगर ऐसे विद्यालय में तबादला करने की सोच रहें हैं जहां बायोमिट्रिक मशीन नहीं है, तो उस ख्याल को छोड़ दीजिए क्योंकि देर-सवेर बायोमिट्रिक मशीन हर विद्यालय में लगने वाली है! ऐसी मन्शा रखने वालों को समझ जान चाहिए: घबरा कर वो ज़माने से कहते हैं कि मर जाएंगे, मर कर भी चैन न आया तो फ़िर किधर जाएंगे?
बेशक मज़बूरियों के चलते विभिन्न अध्यापक संघ इस पहल का खुलकर स्वागत नहीं कर पा रहे हैं या वे इस बावत अपनी प्रतिक्रिया देने से कतरा रहे हैं या फ़िर दबी ज़ुबां में इसकी खामियों को तलाश कर गिनाने में लगे हैं! मगर शिक्षा विभाग द्वारा उठाय गया यह एक सराहनीय कदम है! जिस ज़र्ज़र हालत में हमारी शिक्षा आज़ है उसे देखते हुए इस तरह की पहल लाज़मी है! 
शिक्षा में हर खामियों के लिए सरकार को ही दोष देना अपने अंदर की खामियों पर पर्दा डालने वाली बात है! कुछ अंगुलियां आप पर भी निशाना साधे हैं, गुरुवर! यह आयने की तरह साफ़ है कि आज सरकारी गुरुजी पर या तो सरकार व प्रशासन भरोसा करने को तैयार नहीं या यूं कहिए गुरुजी जी समाज़ में तेज़ी से अभिभावकों व लोगों का भरोसा खोते जा रहे हैं! फ़िर हमार शिक्षा विभाग बहुत विस्तृत है और हमारे वतन का मुस्तक्बिल इसी विभाग पर ठहरता है! इस लिए निगाहें गुरुओं पर होना स्वभाविक है! बात चाहे जो भी हो, खामियां खंगालने की बजाए गुरुओं को इस पहल का स्वागत करना चाहिए! अगर वो ऐसा नहीं करने की फ़िराक में है तो वो अपने ढोल के पोल खोल रहे हैं! 
बेशक गुरु राष्ट्र निर्माण की नींव तैयार करते हैं और उनसे उपेक्षा की जाती है वै कर्तब्यनिष्ठ हो कर नई नस्ल के लिए आदर्श साबित हों! ऐसा भी नहीं है कि वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं! बहुत से अध्यापक इस कसौटी पर खरे उतर भी रहे हैं और अध्यापक समुदाय के लिए एक प्रेरणा और शिक्षा जगत के लिए गौरव हैं! परन्तु बहुत से ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ रस्म अदायगी कर रहे हैं! उनका क्या? उनका क्या जो छाती ठोक कर ये कहते हैं - ’कौन पूछता है?’ और ’कोई क्या उखाड़ लेगा?’
वास्तव में आदरणीय गुरुजन भी उस लचर ब्यस्था का ही हिस्सा है जहां देरी से आना, जल्दी निकल जाना हमारे देश के हर सरकारी विभाग में काम करने की संस्कृति बन गयी है! ये भरोसा कर लेना कि वे स्वत: ही अपने इस अंदाज़ को छोड़ देंगे, मगरमच्छ से ये सोच कर दोस्ती करने वाली बात है कि वह ऐसा करके हमें नहीं खाएगा! दरअसल हमारी ब्यव्स्था न्यूटन के पहले नियम के अनुसार चल रही है अर्थात जब तक कोई बाहरी शक्ति का इस्तमाल न किया जाए तब तक हम काम करने के तौर-तरीके बदलने को तैयार नहीं होते और नयी ब्यव्स्था अपनाने से कतराते हैं चाहे ये ब्यव्स्था बेहतर ही क्यों न हो! डंडे के बल पर ही काम करने की आदत पड़ गयी है! 
बायोमिट्रिक मशीन लगने से सब से पहले तो वे प्रधानानाचार्य महोदय चैन की सांस लेंगे जो लेटलतीफ़ गुरुओं को या तो कुछ कह नहीं पाते या उन्हें रोज़ इस बात पर चिकचिक करनी पड़्ती है! दूसरे ऐसे साहबों की भी कमी नहीं है, जो देरी से विद्यालय पहुंचते हैं औए साथ में वक्त की अहमियत का सबक भी पढ़ाते हैं! ऐसे साहबों की दुरुस्तगी भी बायोमिट्रिक मशीन करेगी और जब किसी संस्था के साहब दुरुस्त होंगे तो उनकी नाक के नीचे काम करने वले बहुत सारे कर्मी खुद ब खुद दुस्रुस्त हो जाएंगे! विद्यालयों में तैनात गैर शिक्षक कर्मचारियॊं पर भी बायोमिट्रिक मशीन नकेल ठोंक सकती हैं! भाड़े पर अध्यापक रखना और हाज़री में गड़्बड़झाला जैसी घट्नाओं पर भी रोक लगेगी! 
ज़ाहिर है ब्यवस्था नई है, खामियों भी होगी, पर ऐसी नहीं कि दूर नहीं की जा सकती! मैं ये दावा तो नहीं ठोंक सकता कि बायोमिट्रिक मशीन शिक्षा के लिए रामबांण औषधि है, पर ये बेलगाम व बिगड़ैल शिक्षकों पर शिकंजा जरूर कस सकती है! जरुरत है विभाग इसे रस्म-अदायगी न समझ कर, गंभीरता से कार्यान्वित करे! अगर इसके साथ सी सी टीवी कैमरे भी लग जाए तो शिक्षा के लिए सोने पर सुहागा! अत: गुरुओं को चाहिए कि बायोमिट्रिक मशीन का स्वागत कर अपने आप को नई ब्यवस्था के साथ सुव्यवस्थित करें!