Monday 13 June 2016

कानून का उग आया जंगल, वृक्ष कहीं दिखायी नहीं देता : सरकारी स्कूल बनाम निजी स्कूल


आज से लगभग बारह वर्ष पहले एस एस ए कार्यक्रम का आगाज़ सरकारी शिक्षा का हुलिया सुधारने के लिए किया गया था! तब से कानून बनते गए, नियम परोसे जाने लगे और आर टी ई आया! विभाग के आला अधिकारी व सरकार ढोल पीटते रहे कि अब आयेगा पढ़ने और पढ़ाने का मज़ा! लाचार अध्यापक कहता रहा, चीखता रहा, पर उसको मूर्ख और निट्ठल्ला समझ कर बड़े साहब कानून का ढोल पिटवाते रहे! कुछ अध्यापक खुद अपनी करतूतों से लुटता रहा और कुछ उससे छिन गया! कानून की लाठी से हांकते हांकते आज शिक्षा को जिस मकाम पर पहुंचा दिया गया, वहां अभिभावक  तमाशबीन, छात्र मज़बूर, अध्यापक कुठित और शिक्षा पंगु बन कर गये हैं! कानून का जंगल तो जरूर उग आय है, पर वॄक्ष कहीं नज़र नहीं आ रहा है!  अब सिवाय इसके कि ठिकरा किसके सिर पर फ़ोड़ा जाए किसी को कुछ सूझ नही रहा! हां कभी क्भी कुंभकर्णीय नींद से जब कभी हमारी नाराज़ जनता जागती है तो साहब लोग उनके तुष्टिकरण के लिए गुरुजनों को वेतन वृद्धि व तबादले के डरावने सपने दिखाने शुरु कर देते हैं!
      एस एस ए व आर एम एस ए जैसे शस्त्रॊं से सरकारी सकूलॊं से पलायन रोकने व एनरोलमेंट बढ़ाने का प्रयास किया गया पर कहा जा सकता है कि मर्ज़ बढता ही गया ज्यों ज्यों दवा की गयी! एस एस ए की डाइस रिपोर्ट के अनुसार प्रारंभिक स्तर पर 2003 में 5.89 लाख छात्र सरकारी स्कूलों में थॆ ! ये संख्या 2015 में घट कर 3.23 लाख रह गयी! वहीं प्राइवेट स्कूलों में इस अवधि में एनरोलमेंट 77000 से बढ़कर 3.42 लख हो गयी! हां स्कूल इतनी तेज़ी से बढे जैसे करयाने की दुकानें!
      ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक निजी स्कूलों के अध्यापकों की तुलना में कम काबिल हैं! पर कर्य करने की संस्कृति व शैली में फ़र्क है! जहां निजी सकूलों में निट्ठल्ले गुरुओं को घर का रास्ता नपवाने में देर नहीं लगती, वहीं सरकारी स्कूलों में वर्क एथिक्स इतने बेहतर नहीं! एक बार अध्यापक की नौकरी मिल जाने के बाद ऐसा बहुतायत सोच जाता है - कौन पूछता है या मेरा कोई क्या ऊखाड लेगा? प्रधानाचार्य महोदय भी बेबस दिखते हैं! सरकारी स्कूल का अधयापक हर मुद्दे पर बहस करने को जरूर तैयार रहता है पर शिक्षा को कैसे बेहतर कैसे बनाया जाए इस मुद्दे से कतराता है क्योंकि फ़िर तो उसकी शामत आ सकती है!  
      अभिभवक सरकारी स्कूलॊं में अपने बच्चॊं को भेज तो देते हैं पर उसके बाद उनकी सुध लेने की सुध नहीं लेते! बार बार संपर्क करने पर भी वे स्कूल के दर्शन करने की ज़हमत नहीं उठाते! सब कुछ अध्यापक पर छोड़ दिया जाता है जैसे उसके पास कोई जादू की ऐसी छड़ी है जिससे उनके बच्चे एक दम होशियार हो जाएंगे! हां परीक्षा परिणाम वले दिन अध्यापकों की तरफ़ तरेरी निगाहों से जरूर देख लेते हैं! उधर निजी स्कूल के बच्चों के अभिभावक किसी टेस्ट में कम अंक आने पर कारण बताओ नोटिस ले कर अध्यापक के पास पहुंच जाते हैं!
      निज़ी स्कूलों के अध्यापक को एम डी एम का हिसाब किताब नहीं रखना पड़ता ! वे किसी गैर शिक्षण कार्यॊं में सम्मिलित नहीं होते! वे केवल पढ़ाते हैं! उधर सरकारी अध्यापक को कागज़ों से काफ़ी संघर्ष करना पड़ता है! गैर शिक्षण कार्यों में लगाते समय हर विभागीय अधिकारी शिक्षकों को सबसे योग्य, बेहतरीन और उपयुक्त मानते हैं लेकिन इसके अलावा वे भी चठकारे ले कर अध्यापकों का मज़ाक उड़ाने से गुरेज़ नहीं करते!
      सरकारी स्कूलॊं में लम्बे समय तक अध्यापकों के पद खाली पड़े रहते हैं! कोई होश लेने को तैया नहीं! इतना जरूर है कि तबादलों से विभाग को फ़ुर्सत नहीं ! तबादला करते समय ये देखना भी मुनासिब नहीं माना जात कि कहीं बच्चों की पढ़ाई पर क्या नकारत्मक असर पड़ेगा! तबादलों पर रोक के आदेश छलावा ही लगता है क्योंकि ये ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती ही रहती है, फ़िर मार्च हो या दिसंबर!  वैसे अगर तबादला निदेशालय भी खोल दिया जाए तो शिक्षा विभाग की सर दर्दी कफ़ी कम हो जाएगी और नया निदेशालय कफ़ी फ़लेगा फ़ूलेगा! 
       इन सब के बावजूद अगर परिणाम ठीक नहीं तो अभिभावक, अधिकारी, सरकारें सब एक जुट हो कर अध्यापक को फ़ांसी देने की अपनी मंन्शा को छुपा नहीं पाते, फ़ांसी हो न हो वो अलग बात है! बेहत्तर है विभाग व सरकार को चाहिए कि अध्यापकों को गैर शिक्ष्ण कार्यॊं से दूर रखा जाए व पदों खाली न रखा जाए और वर्ष भर की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखी जाए! वर्ष के अंत में परिणाम टटॊलने से मोती नहीं मिलते साहब! 

     

Sunday 5 June 2016

पंगु होती शिक्षा


आज शिक्षा उस मोड़ पर आ गयी है जहां खड़े हो कर आगे का रास्ता देखा जाए तो लगता है कि देश की भविष्य की चिंता शिक्षक, आला अफ़सर, सियासतदां सभी जताते हैं पर हुक्म, आशा और चाहत से आगे बात नहीं बढ रही! जहां सब पास की नीति नासूर बनती जा रही है और छात्रों पंगु बनते जा रहे हैं, वहां 0-25% परीक्षा परिणाम का आना कोई असामान्य घटना नहीं! इस तरह की घटनाएं होती ही रहेंगी! माना कि 0-25% जैसा खराब परिणाम शिक्षकों के निट्ठल्लेपन और नाकाबलियत की ओर ईशारा करती है! ये भी माना उसमें दुनियां भर की बुराइयां आ गयी है, पर क्या सभी ऐसे अध्यापक हैं? और पूरे का पूरा ठिकरा अध्यापकों के सर पर फ़ोड़ देना क्या वास्त्विक हल है? बहुत सारे अध्यापक ऐसे जरूर होंगे जो कार्य के प्रति निष्ठा नहीं रखते, पर क्या सभी?
और क्या उनके निट्ठल्लेपन के लिए विभाग या आला कमान जिम्मेबार नहीं
अगर साहब लोगों को लगता है कि शिक्षक निट्ठल्ले व कामचोर हैं और उनका तबादला करना चाहिए तो बेशक कीजिए पर थोड़ी उनकी भी सुन लीजिए! जरा ये भी जरूर सोचिए कि क्या अध्यापकों का तबादला रामबांण औषधि है! जी नहीं - आप ऐसा करके बहुत बड़ा सुधारात्मक कदम नहीं उठा रहे हैं, बल्कि समस्या एक जगह से दूसरी जगह तबदील हो रही है! यकिन मानिए ऐसा करना केवल एक बिहार बनाने की तैयारी मात्र है! अगर 100% परीक्षा परिणाम ही अच्छे अध्यापक की कसौटी है तो ये काम भी मु्श्किल णहीं साहब - नकल ही तो करवानी है! ऐसे में जिन नौजवानों की फ़ौज़ हम बनाएंगे वो टोकरी में रखे उन आमों की तरह होगी जो दिखेंगे शानदार पर उनका रस सिर्फ़ खठास ही करेगा!
सारे वर्ष कुंभकर्णीय नींद मे सोए रहना, और परिणाम आने पर चौकन्ने हो जाना -  ऐसा न विभाग के लिए  न्यायसंगत है न शिक्षकों के लिए तर्कसंगत! फ़िर बौखलाहट में अध्यापकों को सूली पर चढा देना - अगर ये हल है तो कभी समस्या समाप्त नहीं होगी बल्कि और विकट रूप धारण करेगी! ऐसे में "देश के कोने कोने को बिहार बना कर छोड़ेंगे" का नारा जरूर साकार हो जाएगा!
सियासतदां और अधिकारी स्वयं विभिन्न मंचों से मान चुके हैं कि आठ्वीं कक्षा तक सब का पास हो जाने से एक आठवीं पास छात्र गुणा भाग तक नहीं कर सकता फ़िर एका एक बेहतर परिणाम की इछा रखना - ये कैसा तर्क है ! यहां मंजिल तो सही है, पर साहब आप शिक्षकों को उस नाव में बिठा रहे हो जो विपरीत दिशा में जा रही हैं!  
सत्रह वर्ष के कार्यकाल में मैने मुशिकल से एक आध बार किसी आला अफ़सर को किसी स्कूल का निरिक्षण करते देखा है और वो भी पहले सूचित कर! क्या पूरे वर्ष ये जानने की कोशिश की जाती है कि अमूक अध्यापक अपना कार्य सही मायनों में कर रहा है? क्या इस बात को तरजीह दी जाती है कि अध्यापक का पद खाली न रहे? क्या अध्यापक नियुक्ति के  समय योगयता को दरकिनार नहीं किया जाता? पिछले दस बारह वर्षों से चल रहे आर एम एस ए और एस एस ए के कार्यक्र्म के अंतर्गत किसी एक भी कामचोर शिक्षक की क्लास ली गयी? क्या कभी इस ओर ध्यान दिया गया कि अध्यापक को कितने गैर शिक्षण कार्य करने पड़ते हैं? इसके लिए भी क्या शिक्षक ही जिम्मेदार है?

अंधेरों की शिकायत से कुछ नहीं होता जनाब
ये भी देखिये कि रोशनी की मज़बूरियां क्या है!
इस बात में जरा भी संदेह नहीं कि सब पास निती ने शिक्षा का स्तर तो गिराया ही है, साथ में काम चोरों को कामचोरी की पूरी छूट दे दी! वे कगज़ के पेट बखूबी भर लेते हैं और विभाग भी इतिश्री मान लेता है! आगे ये क्या करेंगे, ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं!
शिक्षकों के पास मां -बाप बड़े भरोसे अपनी संतान भेज रहे हैं ! उसे अपनी संतान समझ कर
बेहतरीन तालीम देना शिक्षक का परम कर्तब्य है!
जाँन एफ़ केनेडी ने कहा था "एक गलत शिक्षित बच्चे का मतलब है एक बच्चे का खो जाना"! और आला अधिकारियों से इल्तज़ा है कि आप बेशक दोषी व निट्ठ्ल्ले शिक्षकों को दंडित कीजिए, पर पूरे अध्यापक समुदाय को प्रताड़ित कर शिक्षा सही राह नहीं पा सकती:

कु तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता
जी तो बहुल चाहता है सच बोलें, क्या करें होंसला नहीं होता