Saturday 8 October 2016

हिमाचल विश्वविद्यालय हिंसा

इधर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय प्राशासन राष्ट्रीय आंकलन एवं प्रत्यायन दल (नैक) से प्रदेश के इस उच्च शिक्षण संस्थान के लिए ए ग्रेड की आस लगाए बैठे हैं, उधर परिसर में खूनी संघर्ष चल रहा है। किसी के ज़िंदाबाद और किसी के मुर्दाबाद के नारों से गूंजते व खून से सने इस माहौल को देख कर वे हैरान ज़रूर हो रहे होंगे कि भोलेपन के लिए मशहूर इस शांतिप्रिय प्रदेश के उच्च शिक्षण संस्थान में ये कैसा घृणित व शर्मसार कर देमे वाला खूनी खेल चल रहा है। ऐसे में विश्विद्यालय की ग्रेडिंग करते समय नैक पशोपेश में ज़रूर पड जाएगा। अगर ए ग्रेड मिल भी गया तो उसके क्या मायने? विद्या के जिस परिसर में ज्ञान की महक का अहसास होना चाहिए, वहां अगर भय व असुरक्षा का वातावरण हो तो ग्रेड ए मिले या ज़ैड। जहां इल्म के चिराग जलने चाहिए, वहा अगर हिंसा का तांडव देखने को मिले, तो उस विश्वविद्यालय में अध्ययन की चाह रखने वालों पर क्या असर होगा। जिन हाथों में देश का नक्शा बनाने की कलम होनी चाहिए, उन हाथों में अगर पत्थर या तलवार आ जाए तो उस देश का नक्शा क्या होगा? जिन होस्टलों की अल्मारियां और मेज पुस्तकों से भरी होनी चाहिए, वहां अगर हॉकी, सरिये, ईंट और पत्थर का ज़खीरा मिले, तो अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि शिक्षा की क्या दशा है और यह किस दिशा में अग्रसर है। ये प्रदेश विश्वविद्यालय की कैसी तसवीर देश के सामने प्रस्तुत हो रही है।
नारेबाज़ी, पत्थरबाज़ी, लात-घघूंसे तो हिमाचल विश्वविद्यालय के लिए एक आम बात है। अगर इस विश्वविद्यालय के इतिहास में झांका जाए, तो हिंसक घटनाओं का काला इतिहास सामने आता है। आजकल विश्वविद्यालय में जो चल रहा है, उससे इसके इतिहास के लहू से सने पन्ने फ़िर सामने आ जाते हैं, जिन्हें हर हिमाचली बुद्धिजीवि भूलना चाहता है। 1979 में सुरेश सूद, 80 के दशक में नासिर खान व भारत भूषण और 1994 में कुलदीप ढढवालिया इस छत्र हिंसा में मौत का ग्रास बन गए थे। जिस भी छात्र संगठन को जब सुविधाजनक लगता है, वे प्रयेक कक्षा में जाकर कक्षाओं का बहिष्कार करवा देते हैं। कोई कक्षा न छोड़ने की हिमाकत नहीं कर सकता। अगर करता है, तो बहुत बड़ा जोखिम मोल लेता है। जो वाकई पढ़ना चाहते हैं वो जाएं तो कहां जाएं?
दरसल हिमाचल विश्वविद्यालय में हिंसा दोनों स्थितियों में होती है - जब प्रत्यक्ष चुनाव हो, तब भी और जब अप्रत्यक्ष हो, तब भी। पहली स्थिति में चुनाव के लिए हिंसा होती है, दूसरी स्थिति में चुनाव के कारण। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि विश्वविद्यालय में सक्रीय छात्र संगठन बड़े राजनैतिक दलों की शाखाएं हैं। ये दल विश्वविद्याल का इस्तमाल अपनी राजनैतिक हवा बनाने के लिए करते हैं। छात्र संगठनों के हाथ में जो पत्थर होता है, वो इनका अपना नहीं होता। इनके तो सिर्फ़ हाथ होते हैं और पत्थर राजनैतिक आकाओं द्वारा इन हाथों में थमाए जाते हैं। हिंसा का हल इस बात में है कि विश्वविद्यालय में राजनैतिक दल अपना हस्तक्षेप करना बंद कर दें। दलगत संगठनों पर रोक लगा कर भी प्रत्यक्ष चुनाव करवाए जा सकते हैं। कोई भी अपने स्तर पर चुनव लड़ सकता है। ऐसे में हिंसा होने के आसार भी बहुत कम हो जाएंगे और हर एक इच्छुक को प्रतिनिधित्व करने का अधिकार भी मिल जाएगा। मैरिट आधार पर प्रतिनिधी का चुनाव चुनावी हिंसा को तो रोक सकता है, परन्तु छात्र संगठनों के टकराव से उत्पन्न होने वाली हिंसा को नहीं। दूसरे यह आवशयक नहीं कि जो मैरिटोरियस है, वह एक अच्छा प्रतिनिधित्व भी दे पायेगा।
मां-बाप जब अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय भेजते है, तो उनकी आंखों में सपने होते हैं - मेरा बेटा ये करेगा, वो करेगा। उन्हें एक उम्मीद होती है कि उनका लाल उनके सपनों को साकर करेगा। परन्तु विश्वविद्यालय परिसर के आस-पास बिखरे कांच के टुकड़े कई मा- बाप के बिखरे सपनों की गवाही देते हैं। उन्हें ये पता भी नहीं चल पाता कब उनका लाल शीशे और पत्थर के खेल में उलझ गया। अपने बेटे को शीशे और पत्थर के खेल का शिकार होते देख उनके सपने दम तोड़ने लगते हैं। जब वे इस तरह का भयावह माहौल देखत है तो वे मन मसोस कर रह जाते हैं। जब तक इन लालों को अहसास होगा, तो शायद बहुत देर हो चुकी होगी। फ़िर वे ज़रूर कहेंगे- काश मेरे हाथ में पत्थर की जगह कलम होती, किताब होती, कागज़ होता, तो मैं हिंदोस्तान का एक नक्शा बनाता।

Saturday 1 October 2016

शिक्षण संस्थानों में हिंसा और गुरु-शिष्य के बीच बढती खाई

दिल्ली के सुलतानपुरी इलाके के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक का अपने ही शिष्य द्वारा कत्ल करना गुरु-शिष्य के बीच बिगड़ते रिश्ते की पराकाष्ठा है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि शिष्य गुरु का कत्ल तक करने पर उतर आया हो। हमारे प्रदेश में भी इस तरह की घटनाएं होती आयी हैं। 14 दिसम्बर 1998 में अरसू के एक सरकारी स्कूल के नवी कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य पर सरिये से वार किया जिसके कारण उनकी मौत हो गयी। अगस्त 2014 में संजौली कॉलेज में छात्रों ने प्रधानाचार्य व अन्य शिख्शकों के साथ मार-पीट की थी। चंद रोज़ पहले गंगथ में सरकारी स्कूल के एक छात्र ने सुबह-सवेरे स्कूल ग्राउंड में प्रधानाचार्य का गला पकड़ लिया था। उनकी गलती ये थी कि उन्होंने उस छात्र को एक विद्यार्थि की तरह अनुशासित होने की हिदायत दी थी। इसके अलावा दिसंबर 2014 में झारखंड के एक स्कूल के सातवी कक्षा के तीन छात्रों ने अपने अध्यापक को इसलिए मार डाला क्योंकि उक्त अध्यापक ने उन्हें धुम्रपान न करने की सलाह दी थी। फ़रवरी 2012 में चिन्नई के एक स्कूल में नवी कक्षा के छात्र ने चाकू से अपने अध्यापक की जान ले ली। अध्यापकों से थप्पड़बाज़ी, गालीगलौज, बदसलूकी जैसी घटनाएं तो अब आम होती जा रहीं हैं।
जहां हमारे देश का इतिहास गुरु-शिष्य की आदर्श परंपरा के उदाहरणों से भरा पड़ा है, वहीं आज गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती खाई एक ज्वलंत समस्या बन चुकी है। जिस देश में शिष्य अपने गुरु को देवतुल्य मानता आया है, वहीं आज इस रिश्ते में इतनी तलखी और हिकारत आ गयी है कि नौबत कत्ल तक पहुंच जाती है। विद्यालय में मुल्क के भविष्य को सींचा जाता है और भाग्य की रेखाएं खींची जाती है। इस मुकदस जगह पर इल्म के चिराग जला कर गुरु अपने शिष्य के अज्ञान के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करता है और उसे अनुशासन, संस्कार और शिष्टाचार का सबक पढ़ाता है। परन्तु जो कुछ घटित हो रहा है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि धीरे-धीरे शिक्षण संस्थान अनुशासनहीनता, बदज़ुबानी, मारपीट, और हिंसा का केंद्र बनते जा रहे हैं।
आज गुरु-शिष्य के संबंधों में वो आत्मीयता नहीं रही। अगर अपने शिष्य को सही राह दिखाना, पथभ्रष्ट होने से रोकना, गलती पर टोकना, उसे अनुशासित रहने का सबक सिखाना गुरु के लिए अब गुनाह हो गया है, तो आखिर इन शिक्षा के मंदिरों का औचित्य क्या है? यदि शिक्षण संस्थानों में ऐसा होता रहा, तो ऐसे असुरक्षित वातावरण में गुरु कैसे अपने कर्तब्य का निर्वाह कर पाएगा? क्या संत कबीर जी की ये पंक्तिया सिर्फ़ किताबी छलावा है?
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट
गुरु और शिष्य की बीच की तना-तनी का एक कारण यह है कि दोनों कक्षा में एक दूसरे से मिलते तो हैं, परन्तु उनमें संवाद नहीं होता। गुरु की बात शिष्य नहीं समझ पाता और गुरु शिष्य तक नहीं पहुंच पाता। पढ़ाई किताबों से नहीं, बल्कि दिल से होती है। यदि अध्यापक शिष्य को नहीं समझ पा रहा है, तो बेहतर है अध्यापक शिष्य को समझे। अध्यापक और शिष्य का रिश्ता वर्चस्व स्थापित करने का नहीं, बल्कि समझ का एक ज़हनी रिश्ता है।
गुरु-शिष्य के बीच बढ़्ती दूरियों के लिए अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। अभिभावक समझते हैं कि शिक्षक महज़ एक कर्मचारी हैं जिसे सरकार मोटी तनख्वाह दे रही है या उसे मोटी रकम फीस के रूप में अदा की जा रही है।वे भूल गए हैं कि गुरु-शिष्य का रिश्ता ग्राहक और दुकानदार का पेशा नहीं है। शिक्षण ऐसा कार्य है, जिसमें शिष्य में ज्ञान के प्रति जुनून व समर्पण की भावना होनी चाहिए और गुरु में अपने ध्येय के प्रति निष्ठा। बच्चों के मन में शिक्षक के प्रति आदर-भाव भरने की बात तो दूर, अभिभावक उनकी शिकायत करने या उनके विरुद्ध मुकद्दमा दायर करने के लिए आतुर रहते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों में गुरु के लिए सम्मान की भावना कैसे विकसित होगी? हालांकि विद्यालयों में एस एम सी गुरु-शिष्य-वालदेन के रिश्तों को सुदृड़ करने में अहम भूमिका निभा सकती है। परन्तु ज़्यादातर एस एम सी के सदस्य या तो निष्क्रीय हैं या फ़िर शैक्षणिक कार्यों को पीछे रख कर राजनीति में ज़्यादा रूची लेते हैं।
घर बच्चे की पहली पाठशाला होती है और मा-बाप पहले अध्यापक। बच्चों के मानस पटल पर घर के माहौल और वहां मिल रही तरबीयत का गहरा असर होता है। जिस अत्यधिक खुले वातावरण में आज बच्चे पल रहे हैं, उसने उनका भला कम और नुक्सान ज़्यादा किया है। अति सर्वत्र वर्जयेत अर्थात किसी भी चीज़ का आवश्यकता से अधिक होना नुकसानदेह होता है। कुछ माता-पिता ’बैस्ट पापा’ या ’बैस्ट मॉम’ कहलाने के चक्कर में अपने बच्चॊ की हर बात या मांग पर ’यैस’ कहने की होड़ में शामिल रहते हैं। इस होड़ में न माता-पिता, न ही बच्चे ये समझ पाते हैं कि ’नो’ शब्द की अहमियत कितनी है। ’यैस’ को सुनते-सुनते बच्चे को ’नो’ सुनना अखरने लगता है। अनुशासन में बंधना उसे बोझ लगने लगता है। ’दरवाज़ा खुला है’ वाली निति पर चलते-चलते पता भी नहीं चलता कि बच्चा कब हाथ से निकल गया और राह से भटक गया। वास्तव में आज उचित समय पर कहा गया ’नो’ कल बच्चे के भविष्य के लिए ’यैस’ साबित होता है। मा बाप को याद रखना चाहिए कि एक चिंगारी को बुझाने के लिए चुल्लु भर पानी भी काफ़ी होता है, मगर जब वह ज्वाला बन जाए, तो दमकल विभाग का टनों पानी भी कुछ नहीं कर पाता। उठते ज़ख्म को वक्त पर दवा न मिले तो वह नासूर बन जाता है। बच्चे की बेहतर परवरिश के लिए डांट व दुलार, फ़टकार व तारीफ़, थपेड़े व पुचकार की ज़रूरत होती है, ताकि उसका विकास एकतरफ़ा न हो। शायर राहत इंदौरी ने सही फ़रमाया है:
नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है, कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है.
जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नही होते सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है

Friday 23 September 2016

वसुधैव कुटुम्बकम

          इंसान क्या था क्या हो गया, कोई हिंदु, कोई मुसलमान हो गया - जब मनुष्य का जन्म होता है, तो वह ‘अल्ला हू अकबर‘ या ‘हर हर महादेव‘ का सिंहनाद करते हुए इस दुनिया में अवतरित नहीं होता। किसी पर भी ये ठप्पा नहीं लगा होता कि अमूक व्यक्ति हिंदू, मुसलमान, सिक्ख या ईसाई होगा। कोई इस तरह की चिप्पी भी नहीं लगी होती कि ये गोरा, ये काला, ये सांवला, ये निम्न जात का, ये ऊंची जात का। ख़ुदा ने तो इंसान पैदा किया है और वो भी एकदम बराबर, परन्तु वो खुद ही बंट गया - कोई बन गया हिंदू, कोई सिक्ख, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई ढीमका, कोई फ़्लां। हम इस संसार में उसके बंदे के रूप में आते हैं। मानव की एक ही जात है - इंसानियत और एक ही मज़हब है - मोहब्बत।
          गांधी जी ने कहा है - आंख के बदले आंख एक दिन विश्व को अंधा बना देगा। साबरमती के इस संत ने दया, सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए देश को बिना खड़ग और ढाल आज़ादी दिलाने का बीड़ा उठाया था और पूरे विश्व को मानवता का संदेश दिया था। भले ही ब्रिटिश प्रधान मंत्री, विन्सटन चर्चिल, ने गांधी जी को कटाक्ष करते हुए ’नंगा फ़कीर’ कहा था, परन्तु इसी नंगे फ़कीर को आज सारा विश्व सहस्राब्दी पुरूष और महात्मा के रूप में शीष नवाता हैं। ऐसा नहीं था कि वे कुर्ता नहीं खरीद सकते थे, मगर कुर्ता न पहन कर उन्होंने मानव को परस्पर दया, संवेदना, प्रेम और सहानुभूति का संदेश दिया था। उन्होंने मानव समाज को अहिंसा को अपनी जीवनशैली बनाने के लिए प्रेरित किया।
          आज के वैमनस्व, नफ़रत, हिंसा और कत्लेआम के दौर में उनका संदेश और भी अहम हो जाता है क्योंकि धर्म, जाति, रंग के आधार पर इतना खून बहा है कि भविष्य हमें कभी माफ़ नहीं करेगा। कहीं कोई लहु के चंद कतरों के लिए तरसता है. तो कहीं वही लहू ख़ुदा के नाम पर सड़कों पर बह रह होता है। कहा जा सकता है:
नफ़रतों का असर देखो जानवरों का बंटवारा हो गया,
गाय हिन्दू हो गई और बकरा मुसलमान हो गया 
                   
          ऐसा नहीं होता कि सूर्य की किरणें किसी पर मधम और किसी पर तेज़ पड़ती हैं और वर्षा की बूंदें किसी पर बरसती हैं और किसी को अछूता रख देती है। चांद का कोई मज़हब नहीं, ईद भी उसकी मनाई जाती है और करवा चौथ भी। रिलायंस हो या वोडाफ़ोन, कोई ऐसा नेटवर्क नहीं जो गोरे रंग वालों को बढ़िया और काले रंग वालों को घटिया सिगनल देते हैं या हिंदूओं के लिए बढ़िया चलते हैं और मुसलमानों के लिए रुक जाते हैं। काले का ख़ून भी लाल, गोरे का खून भी लाल; हिंदू का खून भी लाल, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई का खून भी लाल। न हमें ख़ुदा ने बांटा, न हमें प्रकृति ने बांटा, फ़िर इंसान ने इंसान क्यों बांट रखा है? संत कबीर कहते हैं:
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे,
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौ मंदे
          उर्दू शायर इकबाल ने बहुत ख़ूब कहा है - मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना सद्भाव सभ्यताओं को जोड़ता है, राष्ट्र को बनाता है। जाति, वर्ण, रंग, धर्म, कोई भी हो, वो एक दूसरे से न निम्न हैं, न एक दूसरे से ऊपर। धर्मवाद, रंगवाद, जातिवाद ऐसी बिमारियां है जो केवल मानव को बांटती हैं और सभ्यताओं को विनाश की ओर ले जाती हैं। किसी को ये हक नहीं कि वह जाति, धर्म और रंग के आधार पर किसी का हक छीनें, किसी को अपमानित करे और किसी का कत्ल करे। ये सभी धर्मों के उसुलों के विरुद्ध है। न धर्म टकराते हैं, न जाति, न रंग। टकराती तो वहशत है, टकराती तो संगदिली है। यदि मौहब्ब्त का उद्घोष करेंगे, तो संसार मोहब्बत की रोशनी से जगमगा उठेगा। यदि घृणा का उद्घोष करोगे, तो सारा संसार नफ़रत के अंधेरे में डूब जाएगा। हम इस दुनिया को प्यार-मौहब्बत से एक अचछी जगह बनाने आए हैं। वहशत और दहशत फ़ैलाने वालों का कोई धर्म नही होता। वे न कुरान के हैं, गीता के, गुरुग्रन्थ साहिब के, बाइबल के। वे सिर्फ़ इंसानियत के दुश्मन होते है।
          प्रत्येक मनुष्य को अपने सिद्धांतो पर चलने का अधिकार है, परन्तु समस्या तब पैदा होती है जब हम दूसरों के विश्वास व सिद्धांतों को गलत साबित करने पर तुल जाते हैं। धर्मांध हो कर हम हर दूसरों के विचारों, विश्वास को धर्म के चश्में से देखना आरंभ कर देते है। धर्म के मद में अंधे व्यक्ति को सिर्फ़ अपना ही धर्म उत्तम लगता है और दूसरों का धर्म निम्न।
          हम एक ही जड़ से उत्पन्न हुए पौधे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप जड़ से मोहब्बत करें और पेड़ से घृणा? इंद्रधनुष इसलिए सुंदर और दिलकश लगता है क्योंकि उसमें सात रंगों का अनूठा संगम है। हमारा प्रदेश, हमारा देश, हमारा संसार तभी सुंदर लगेगा अगर यहां विभिन्न, जाति, रंग और धर्म के लोग भ्रातृभाव से रहें। इस भाव को मन से निकाल दें कि दाढ़ी वाले दहशतगर्द और चॊटी वाले काफ़िर हैं।
          तो आओ! 'वसुधैव कुटुम्बकम’ और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को अपने जीवन का सिद्धांत बना कर एक कल्याणकारी संसार बनाने का प्रयास करें और मार्टिन लूथर किंग के इन शब्दों को याद रखें - हमें बंधुओं की तरह रहना होगा या फ़िर धूर्तों की तरह नष्ट होना होगा।"
मैं  अमन पसंद हूँ, मेरे शहर में दंगा रहने दो
लाल और हरे में मत बांटो, मेरी छत पर तिरंगा रहने दो


Tuesday 13 September 2016

बहुभाषिये बनो


    'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल' - जब जब भी हिंदी दिवस आता है या हिंदी भाषा का ज़िक्र होता है, तो इस भाषा के चिंतक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध कविता मातृभाषा के प्रति' से ली गयी इस पंक्ति का जिक्र अवश्य करते हैं। ऐसा करना उचित भी है और स्वभाविक भी क्योंकि ये वो भाषा है जिस में हमने सबसे पहले अपने ज़ज़बातों व एहसासों को शब्दों में अभिव्यक्त करना आरंभ किया। चाहे हमारे संविधान में बहुत सी भाषाओं को राष्ट्रीय मान्यता दी गयी है, परन्तु हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया है। टूटी-फ़ूटी ही सही, हिंदी देश के लगभग हर प्रांत और खंड में बोली या समझी जाती है। इस तरह यह देश को एक सूत्र में भी बांधती है।
    परन्तु, हिंदी भाषा को तरज़ीह देने के मायने ये भी नहीं है कि अन्य भाषाओं को हीन दृष्टि से देखा जाए। मुझे भाषा के उन पंडितों से सख्त गिला है, जो हिंदी को हिंदुओं से, उर्दू को मुसलमानों से, अंग्रेज़ी को गोरों से, पंजाबी को पगड़ी से जोड़ने की कोशिश करते हैं। कई हिंदी के हिमायती तो कह-कह कर नहीं थकते कि अंग्रेज़ी भाषा से गुलामी की बू आती है, लेकिन ख़ुद 'मे आई कम इन', 'बाय-बाय', और 'थैंक यू' जैसे अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने में अपनी बड़ाई मानते हैं। वास्तव में भाषाएं तो एक दूसरे की बहनें होती हैं। वे कभी नहीं टकराती। टकराती तो भाषा के प्रति हमरी मानसिकता है। अगर हिंदी हमारी मां है, तो अन्य भाषाएं हमारी मौसियां हैं। अगर मां के पास हमें अभिव्यक्ति का रास्ता नहीं मिलता, तो मौसियों की शरण में हमें रास्ता मिलता है।
    अगर हम अपनी-अपनी भाषाओं के दायरे खींच ले, तो न तो भाषाओं का आदान-प्रदान होगा, न उनका विकास होगा और न ही हम एक दूसरे की संस्कृति से पूरी तरह वाकिफ़ हो पाएंगे। अगर भाषाएं एक दूसरे से न मिलती, तो श्रीमद भगवद गीता को केवल हिंदु पढ़ पाते, कुरान मुसलमान ही पढ़ते, आदिग्रन्थ केवल सिक्ख जानता और बाइबल केवल ईसाईयों तक सीमित रहती, परन्तु इन पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध होने से विश्व के लोग इन्हें पढ़ पाते हैं।
    देश की आज़ादी में भी कई भाषाओं का योगदान रहा है। राष्ट्रगीत ’वंदे मातरम’ और राष्ट्रगान ’जन गण मन’ हमें बांग्ला ने दिए और ’सारे जहां से अच्छा...’ इकबाल की उर्दू भाषा में लिखी गई देश प्रेम की ग़ज़ल है। अगर ’दिल्ली चलो’ नारा हिंदी में दिया गया, तो क्रांति का प्रतीक ’इंक़िलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा उर्दू ज़बान का है। टैगोर की ’गीतांजली’ को ब्यापक सम्मान अंग्रेज़ी में अनुवादित होने के उपरांत मिला। चाहे राम प्रसाद बिस्मल ने कहा ’लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी’, फ़िर भी उनका उर्दू से बहुत लगाव था। उन्होंने बिस्मल को अपना तख़ल्लुस बनाया और ’सरफ़रोशी की तमन्न्ना आज हमारे दिल में है...’ जैसे उर्दू के तराने लिखे। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और दुष्यंत कुमार की गज़लों में हिंदी व उर्दू जिस तरह से हमामेज़ हुई हैं, वह साहित्य को एक ख़ूबसूरत आयाम देता है। जहां हिंदी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने देश की आज़ादी में अहम भूमिका निभाई, वहीं आधुनिक भारत के जनक राजाराम मोहन राय ने अंग्रेज़ी का इस्तमाल भारत पुनर्जागरण के लिए किया। उन्होंने इस भाषा को अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच सेतु स्थापित करने के लिए भी किया। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पंडित नेहरू. आर के नारायनन, राजा राव, किरन देसाई, अरुनधति रॉय जैसे भारतीय लेखकों ने अंग्रेज़ी भाषा का इस्तमाल करके ऐसी साहित्यिक रचनाएं  लिखी जिन से विश्व में देश का नाम रोशन हुआ है।
      हिंदी भाषा के कई ख़ैरख्वाह अक्सर हो-हल्ला मचाते हैं कि हिंदी खतरे में है, जबकि वास्तव में यह केवल बेवजह का डर है। आज हिंदी चीनी भाषा मैंडरिन के बाद विश्व में इस्तमाल की जाने वाली सबसे बड़ी ज़बान है। वास्तव में हिंदी भाषा में अपने को बनाए रखने की सिफ़्त मौज़ूद है। आज यह गुगल से होते हुई कई देशों में बोली, लिखी व पढ़ी जाते है।
    किसी भी भाषा के विस्तार और विकास के लिए ज़रूरी है, यह दूसरी भाषाओं के प्रति उदार रहे। माना जा सकता है कि अंग्रेज़ी इस नज़रिए से अव्वल आती है क्योंकि इस में दूसरी भाषा के अल्फ़ाज़ को अपने में समाहित करने की बहुत क्षमता है। जैसे हिंदी के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल दूसरी ज़बान में अल्फ़ाज नहीं मिलते, ठीक वैसे ही दूसरी ज़बान के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल हिंदी में अल्फ़ाज नहीं। एक-दूसरे की ज़बान के अल्फ़ाज़ को हमामेज़ करने ही सलाहियत ही ज़बान को विस्तार प्रदान करती है।
    हिंदी को मज़बूत और विकसित होने के लिए इसे आम लोगों के और निकट लाना होगा। भले ही कुछ साहित्य के पारखियों का मानना है कि कलिष्ट शब्दों के इस्तमाल से भाषा मज़बूत होती है और इसकी शान बढ़ती है, परन्तु ऐसा असलियत में नहीं होता। कठिन व कलिष्ट भाषा का इस्तमाल साहित्यिक दृष्टि से तो उचित हो भी सकता है, परन्तु इस तरह यह जनमानस की भाषा नहीं बन सकती। जो भाषा जनमानस की नहीं बन सकती, वह कभी विकसित नहीं हो सकती।
    भाषा किसी की बांदी नहीं होती। इसे किसी खूंटे से नहीं बांधा जाना चाहिए अन्यथा यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है जिसे ज़ीने के लिए दाना तो मिलता है, पर उसकी ऊड़ान कुंद रह जाती है। हिंदी भाषा की सादगी, उर्दू की लज़्ज़त, और अंग्रेज़ी की ख़नक मिल जाए तो भाषा का ज़ायका वैसा होगा जैसा अपने ख़ेत की राजमाह की दाल का जिसमें टमाटर का तड़का लगा हो।

Sunday 11 September 2016

सिमटते मानव मूल्य

जब तक इंसानियत ज़िंदा है, तब तक इन्सान ज़िंदा है। इतिहास गवाह है कि अमानवीय तौर तरीके हमेशा संसार को विनाश के गर्त की ओर ही धकेलते हैं और मानवीय मूल्यों ने ही हमेशा संसार को रोशनी दी है। वो इंसानियत का ही तकाज़ा था जिस के चलते 23 वर्षीय विमान परिचारिका नीरजा भनोत ने वीरतापूर्ण आत्मोत्सर्ग करते हुए 1996 में अपहरित विमान पैन ऍम 73 में सवार कई यात्रियों और बच्चों की ज़ान बचाई। अगर इंसानियत न होती, तो जुलाई 2016 में भोपल के कृष्णा नगर का 23 वर्षीय दीपक अपनी जान गंवा कर 20 लोगों को डूबने से न बचाता। अगर इंसानियत न होती, तो कैलाश सतयार्थी व मलाला युसुफजई नौनिहालों के बचपन को बचाने के लिए आंदोलन न करते। अगर मानवीय मूल्य ज़िंदा न होते तो महात्मा गांधी, मदर टेरेसा, नैल्सन मंडेला जैसे लोग भी मज़लूम लोगों के शॊषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद न करते। अगर स्वार्थपूर्ण और विलासिता भरा जीवन ही सबकुछ है, तो अमेरिका के राष्ट्र्पति होते हुए अब्राहम लिंकन ईमानदारी को अपनी जीवनशैली क्यों बनाए रखते?
आज हमारी जीवनशैली इस जुमले पर काफ़ी हद तक केंद्रित हो गयी है - मुझे क्या लेना? पड़ोसी के घर में आग लगे तो लगे, मुझे क्या लेना? कोई अकेला पड़ा बिमार मरे, तो मरे, उसकी तिमारदारी क्यों करे, मुझे क्या लेना? हम भूल रहें हैं कि जिस दरख़्त के साये में आज हम धूप की तपिश से निजात पा रहे हो, कई सालों पहले उसे उगाने वाले ने ये नहीं कहा था: " "मुझे क्या लेना।" उर्दू के मारुफ़ शायर डॉ नवाज़ देवबंदी साहब साहब कहते हैं:
उसके कत्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया
मेरे कत्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है
आज़ सबसे अधिक विषादित करने वाला पहलू यह है कि संसार में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो ज्ञान और जानकारियों से सराबोर हैं, परन्तु ऐसे लोगों की बहुत कमी हैं जिनमें मानव मौज़ूद है। अस्पताल में कोई तरस रहा होता है कि ख़ुदा के नाम पर उसे ख़ून के चंद कतरे मयस्सर हो जाए, उधर ख़ुदा के नाम पर सड़कों पर लोग ख़ून बहाने पर आमादा होते हैं। कोई बेचारा दुर्घटना के कारण सड़क पर तड़प रहा होता है और कोई उसका वीडिओ बना कर फ़ेसबुक पर अपलोड करने में मसरूफ़ होता है। कहीं पुलिस या अदालत आड़े-तिरछे सवाल न पूछ ले, इस डर से उसे अस्पताल पहुंचाने की कोशिश कोई-कोई ही करता है। अगर जगह कम भीड़-भाड़ वाली हो, तो कोई गिद्ध दृष्टि गड़ा कर उसका माल हड़प्पने की ताक में रहते हैं।
मानवीय मूल्य मनुष्य का ज़हनी और रुहानी गुण है। इन गुणों का विकास मनुष्य के चरित्र निर्माण के साथ किया जा सकता है। ये कार्य शिक्षा के माध्यम से बख़ूबी किया जा सकता है। दक्षिण अफ़्रीका के पहले लोकतांत्रिक राष्ट्रपति, नैल्सन मंडेला, ने कहा था, "शिक्षा सबसे ताकतवर हथियार है, जिससे विश्व को बदला जा सकता है।" अपने घर की देहलीज़ को जब बच्चा लांघता है, तो हर सचेत मा-बाप की सर्वोपरि इच्छा होती है कि उनके बच्चे को बढ़िया शिक्षा मिले क्योंकि अविद्याजीवनं शून्यं - शिक्षा के बगैर जीवन शून्य है। हम भारतीय ज्ञान की देवी सरस्वती के समक्ष प्रार्थना करते हैं - तमसो मा ज्योतिर्गमय। वास्तव में अज्ञानता से बड़ा कोई अंधेरा नहीं और ज्ञान से बड़ा कोई प्रकाश नहीं।
परन्तु शिक्षा क्या है और इसका उद्देश्य क्या हो? पढ़ना-लिखना आ जाए, अंगूठे की छाप की जगह हस्ताक्षर करना आ जाए, डिग्री प्राप्त करना, फ़िर नौकरी हासिल करना और पैसा कमाने की मशीन बनना, क्या यही शिक्षा है? शिक्षा का मतलब केवल जानकारी इकट्ठा करना ही नहीं है, बल्कि एक बेहतर इन्सान बनना इसका मूल उद्देश्य है। मूल्यहीन शिक्षा अनर्थकारी हो सकती है। मानव मूल्यों को छोड़ कर केवल मस्तिष्क से शिक्षित होने का मतलब है समाज के लिए दानवी प्रवृति वाले व्यक्ति को तैयार करना। ज्ञानी तो रावण भी कम नहीं था, परन्तु नैतिकता उसके चरित्र में नहीं थी। नतीज़ा - लंका का विध्वंस।
नि:संदेह शिक्षा का उद्देश्य बेहतर इन्सान बनना है, जो साफ़ और समर्पित ह्र्दय से काम करें। मूल्यहीन शिक्षा उस खुदा की तरह है, जो खुदा तो है पर उसमें फ़रिश्तों जैसा दिल नहीं। फ़रिश्तों का दिल नहीं, तो ख़ुदा कैसा और अगर इंसानियत नहीं, तो इंसान कैसा? मनुष्य चाहे कितना ही सुंदर हो, वह कितना ही सुरीला क्यों न बोलता हो, परन्तु यदि वह मानवीय मूल्यों से शून्य है, तो उसमें और पशु में कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं।
मनुष्य कोई बेज़ान झोला नहीं जिसमें जानकारी या तथ्य समेटे जाएं। मानवीय मूल्यॊं को शिक्षा के साथ समाहित करने का दायित्व मा-बाप और शिक्षक पर आता है। महान दार्शनिक अरस्तु ने सही फ़रमाया है, " मानवीय मूल्यों की शिक्षा देने का सब से बढ़िया तरीका है, अपने शिष्यों के साथ व्यवहार में इसे अम्ल में लाना।" उपदेश से बेहतर है उदाहरण प्रस्तुत करना।
शिक्षक अपने शिष्यों को केवल सूचना और तथ्यों का ही अंतरण नहीं करता, बल्कि उनमें इस ज्ञान को विवेक के साथ इस्तमाल करने की सलाहियत को भी निखारता है। शिक्षा केवल आजीविका कमाने के लिए ही नहीं, बल्कि यह भी सिखाती है कि आदर्श और नैतिक जीवन समाज का स्तंभ होता है। शिक्षा व पढ़ने-लिखने का मूलभूत उद्देश्य विद्यार्थी को एक अच्छा इन्सान बनाना है न कि पढ़े-लिखे शैतान। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं:
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी

Wednesday 7 September 2016

बी ए में खराब परिणाम


हाल ही में हिमाचल विश्वविद्यालय का बी ए पहले समैस्टर का परिणाम आया। परिणाम 2% देख कर थोड़ा ठिठका, थोड़ा सहमा क्योंकि विश्वास नहीं हो रहा था। सोचा कहीं छापने में गलती हो गयी होगी। दूसरे समाचर पत्र खंगाले, पर परिणाम 2% सही ही छपा था। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसा परिणाम भी आ सकता है। आश्चर्य हुआ क्योंकि ऐसा परिणाम तो अक्सर चार्टड अकॉउंटैंट की परीक्षाओं में देखने को मिलता है। इस परीक्षा में बहुत सारे 10+2 के टॉपर्ज़ भी लुढ़क गए। अब जब विश्वविद्यालय स्पष्ट कर चुका है कि परिणाम बिल्कुल दुरुस्त है, तो छात्रों का मन विषादित होना स्वभाविक है।
      इतना ख़राब परिणाम है, तो सवाल तो उठेंगे ही। आखिर ऐसा क्या हो गया कि 10+2 में टॉप करने के बावजूद भी छात्र बी ए में इस कदर फ़िसड्डी साबित हो गए। वास्तव में उच्च शिक्षा में सफ़लता इस बात पर निर्भर करती है कि विद्यार्थि निचले स्तर से कितना कुछ सीख कर व पढ़-लिख कर अए हैं। जैसे किसी ईमारत की बुलंदी और मज़बूती इस बात पर निर्भर करती है कि इसकी नींव की ईंट कितनी पायदारी और करीने से गढ़ी गयी है, ठीक वैसे ही किसी राष्ट्र की उन्नति, गरिमा व मुस्तक्बिल इस बात पर निर्भर करते हैं कि उस राष्ट्र की तालिमी बुनियाद कितनी पुख़्ता है। रूसा के तहत आए इस बेहद निराशाजनक परिणाम के झटके ने तालीम की बुनियाद की मज़बूती और पुख़्तेपन की पॊल खोल कर रख दी है।
      ’पप्पु पास हो गया’ वाली निति ने कैसे-कैसे पप्पु पैदा कर दिए हैं, ये किसी से छुपा नहीं है। ये बात तो विभिन्न सर्वेक्षणों में भी बार-बार सामने आती रही है कि पांचवी पास पप्पु अपना नाम तक नहीं लिख सकते; आठवी पास सामान्य गुणा, भाग नहीं कर पा रहा है। नवीं कक्षा में पहुंचे पप्पुओं की जो हालत होती है, उस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन पप्पुओं को पढ़ाते-सिखाते गुरुजी पर क्या गुज़रती होगी। वो इस पशोपेश में रहते हैं कि वर्णमाला, जोड़-घटाव, गुणा-भाग सिखाया जाए, तो पाठयक्रम का क्या करें; पाठयक्रम पूरा करें तो बच्चों की समझ में कैसे आए। यहां तक कि 10+1 के बहुत से विद्यार्थियों की हालत ये है कि वे एक हिंदी का वाक्य तक शुद्ध लिखने का साहस नहीं जुटा पाते। यह हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी का आलम है, अंग्रेज़ी के टैंसिज़ का इसतमाल तो बूढ़ी का ब्याह समझो। इस पर तुर्रा ये कि कई विद्यालय ऐसे भी हैं जिन्हें आदर्श धोषित किया गया है, परन्तु यहां शिक्षकों के कई अहम पद खाली पड़े हैं। ऊपर से खिचड़ी का पचड़ा, उसका लेखा जोखा, कभी गैस सिलैंडर नहीं मिलता, कभी दाल खत्म, तो कभी चावल की आपूर्ति नहीं। उधर विभाग को तरह-तरह की जानकारियां व आंकड़े भी अध्यापकों को ही तैयार कर ऑनलाइन भेजने पड़ते हैं। फ़िर परीक्षा परीणाम ख़राब आने का डर। अगर चुनाव आ गए तो इस एक काम के लिए सारी पढ़ाई ठप्प। अध्यापक क्या-क्या करे? आखिर इन्सान है, कोई निंजा नहीं। गुरुजी की स्थिति उस सौतेले बच्चे की तरह है जो अगर हाथ धोता है, तो मां कहती है कि पानी बर्बाद कर रहा है, अगर नहीं धोता है, तो उसे गंदा बच्चा कह कर दुत्कार दिया जाता है। किसी ने ठीक कहा है - परेशान किया हुआ अध्यापक कभी बेहतर अध्यापन नहीं कर सकता।
      सवाल ये भी उठता है कि आखिर 10+2 कक्षा में ये छात्र इतने अछे अंक कैसे ले पाए। बोर्ड द्वारा आयोजित दसवी और बारहवी कक्षा की परीक्षा की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठता है। बोर्ड भले ही बड़े-बड़े दावे करता हो, परन्तु वास्तव में इन परीक्षाओं के दौरान जो आलम होता है, उस से यही ज़ाहिर होता है कि जल्द ही हम बिहार के बराबर होने वाले हैं। कुछ अच्छा परिणाम देने के दबाव में, तो कुछ अपनी स्थानीय संबधों के चलते नकल के कार्य में हाथ बंटाते हुए देखे जा सकते हैं। इसका परिणाम ये होता है कि बोर्ड की परिणाम प्रतिशतता तो बेहतरीन हो रही है, परन्तु शिक्षा का हुलिया बद से बदतर होता जा रहा है और पप्पुओं की फ़ौज़ बढती जा रही है। परिणाम की प्रतिशतता अलग बात है और शिक्षा का स्तर ऊंचा होना अलग बात।
      ये देखना भी लाज़िमी है कि क्या हमारी उच्च शिक्षा व बुनियादी शिक्षा के ढांचे में सामंजस्य भी है या नहीं। मसलन आठवी तक तो पास प्रतिशतता का महत्व खत्म है, उसके बाद जिसने 33% अंक हासिल करने के लिए इतने पापड़ बेले हों, उस के लिए 45% का आंकड़ा मुश्किल तो ज़रूर है।
      आंग्रेज़ी में कहावत है - असफ़लता सफ़लता के स्तंभ होत हैं, परन्तु ’पप्पु पास हो गया’ की नीति के चलते बच्चा न असफ़लता और सफ़लता में फ़र्क जान पा रहा है और न ही गलतियों से सबक ले पा रहा है। बाल बुद्धि समझती है कि गलत हो या ठीक, उसे तो अगली कक्षा में जाना ही है।
      इसलिए आज आवश्यकता है कि शिक्षा के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन किया जाए। बच्चों पर इतने सारे प्रयोग उचित नहीं। प्रयोगों के बावजूद अगर लेखा-जोखा शून्य हो, तो शिक्षकों, अभिभावकों और छात्रों के विरोधी स्वर मुखर होना स्व्भाविक है। परन्तु लगता है हुक्कमरान कहीं और व्यस्त है और शिक्षा सियासत के पेचोख़म में उलझ कर रह गयी है। अगर अब भी न संभले तो हम द्वितीय और तृतीय श्रेणी का राष्ट्र तैयार करने की ओर अग्रसर हैं। यही इल्तजा कर सकता हूं:
ठोकरें खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का नसीब,
राह के पत्थर तो अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं।


Sunday 21 August 2016

अध्यापक दीवस या रस्म अदायगी


          एक बार एक छात्र ने क्लास टैस्ट में 2/10 अंक किए। नाराज़ अध्यापक ने उसके टैस्ट पेपर में नोट लिखा - पूअर चाइल्ड’! अगले दिन अध्यापक ने देखा कि उनके नोट के नीचे छात्र के पिताजी ने टिप्पणी की - शागिर्द की कारकर्दगी से पता चलता है कि उस्ताद कितना काबिल है!भले ही पिता जी की यह टिपाणी अध्यापक को नगंवारा गुज़री हो, उसके अहम को ठेस पहुंचाती हो और इस टिप्पणी से वह तिलमिला उठा हो, परन्तु काफ़ी हद तक यह हकीकत को ही ब्यां करती है। जब राजा धनानंद ने चाणक्य को भिक्षा मांगने वाला साधारण ब्राहमण कह ज़लील किया और अपने दरबार से खदेड़ दिया, तो उसने कहा था, "अध्यापक कभी साधारण नहीं होता। निर्माण और विध्वंस उसकी गोद में खेलते हैं।" चाणक्य का ये कथन आवेश में कहा गया महज एक सियासी जुमला नहीं था, बल्कि उसने इसे सिद्ध कर दिखाया था। एक हकीर बालक, चंद्र्गुप्त, को शिक्षित कर उसने नंद वंश का विध्वंस किया और उसे राजगद्दी पर बिठा दिया था। बेहतर मुल्क के लिए बेहतर तालीम का होना लाज़मी है और बेहतर तालीम के लिए बेहतर शिक्षक लाज़मी है! चिकित्सक, अभियंता, नेता, अभिनेता, राजनेता, राजनीतिज्ञ, मंत्री, महामंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, वक्ता, प्रवक्ता, अधिवक्ता, अध्यापक, प्राध्यापक, ब्यापारी, समाजसेवी - कोई भी हो, कितने ही बड़े पद पर आसीन हो, कितने ही महान हो, सभी के पीछे अध्यापक का ही हाथ होता है! विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय देश के भविष्य के लघुचित्र होते हैं। जहां माता-पिता बच्चों का लालन-पालन करते है, वहीं अध्यापक उसे तराशने काम करता है! वक्त के बहते दरिया के साथ शिक्षा भी बदली, इसके आयाम बदले, इसकी दिशा और दशा बदली। यह गुरूकुलों और शांतिनिकेतनों से निकलती हुई आज विशाल ईमारतों वाले मॉडल स्कूलों तक आ पहुंची। परन्तु इस सारी कवायद में अध्यापक की शक्लोसूरत व प्रतिष्ठा का जो कुछ हुआ, वो एक शिक्षक के लिए काबिलेफ़क्र तो कतयी नहीं हो सकता। इस सफ़र में उसने बहुत कुछ खो दिया और बहुत कुछ उस से छीन लिया गया। गोविंद से भी ऊपर का दर्ज़ा रखने वाला अध्यापक आज हर किसी की उलाहना का शिकार व प्रताड़ना का भागी बन गया। अभिभावक उससे निराश हैं, अफ़सर नाखुश हैं व सरकारें उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं। अगर कुछ बचा है, तो सिर्फ़ पांच सितंबर यानि अध्यापक दिवस। इस दिन ज़रूर उसके सम्मान में मन की बातें आअयोजित की जाती हैं, उसकी गाथाएं गायी जाती हैं, और महान लोगों द्वारा उसके बारे में कहे गए लज़्ज़त भरे अल्फ़ाज़ का खूब बखान होता है। कुछ एक जैसे-तैसे जुगाड़ कर ईनाम भी प्राप्त कर लेते हैं। मगर इस रस्मअदायगी के बाद क्या होता है? बस वही उल्लाहना और प्रताड़ना। कोई शिष्य अच्छे अंक ले, तो वो शिष्य मेहनती और होशियार और अगर कहीं परीक्षा परिणाम का ज़ायका ज़रा सा बिगड़ गया, तो गुरुजी नलायक। आखिर ऐसा क्या हुआ, जिस समाज ने गुरु को ज्ञान का सतत झरना मान कर सर आंखों पर बैठाया, आज उसी समाज के लिए अध्यापक का ज़ायका क्यों बिगड़ता चला गया? आइए समझने की कोशिश करते हैं।    
     हमारे देश की शिक्षा का जो ढांचा है उसे देख कर वो कहावत याद आती है - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। दरसल हुआ ये कि, मार्फ़त भ्रष्ट तंत्र, अध्यापन के नेक व्यवसाय में कई किस्म के ऐसे गुरु घुसते चले गए, जिनका इस तंत्र में मंत्र चलता था और जिनका मकसद सिर्फ़ तनख़्वाह लेना रहा। चाहे ऐसे गुरुओं की तादाद बहुत ज़्यादा नहीं, पर बहुत कम भी नहीं है। मछली चाहे एक ही क्यों न हो, तालाब तो सारा गंदा कर ही जाती है और यहां तो कई मछलियां हैं। यहां तक तो फ़िर भी बात जम सकती थी, क्योंकि यह संभव नहीं कि सभी अध्यापक प्रखर विद्वान हो और तमाम सलाहियतों से सराबोर हो। निरंतर प्रयास से अध्यापक इस कमी को दूर कर सकता है। परन्तु हमारे गुरुओं की खूबी है कि एक बार गुरुजी बन गये, फ़िर ज्ञान की सारी किताबें बक्से में बंद हो जाती है और बक्सा भी ऐसा कि खोले नहीं खुलता। बात यहां भी रुक सकती थी, परन्तु अपनी सलाहियत बढ़ाने की बात तो दूर, इन गुरुओं ने अपने कारनामों की जो मिसालें पेश करनी शुरु कर दी, उनसे समाज में अध्यापक की प्रतिष्ठा का गिरना अवश्यमभावी हो गया। छात्रों को सुधारने के लिए डांट-डपट व हल्का फ़ुलका दंड स्वीकार्य हो सकता है, परन्तु उनसे बद्ज़ुबानी, उन्हें बेरहमी से पीटना, उनके समक्ष नशा करना, उनसे नशे की वस्तुएं मंगवाना, उन्हें परीक्षाओं में नकल का भरोसा देना, यहां तक कि छात्राओं से दुराचार जैसी घटनाएं भी सामने आने लगी, जिन्होंने कहीं न कहीं उन गुरुओं की प्रतिष्ठा व आबरू को भी दाग़दार किया है, जो वास्तव में शिक्षा जगत को अपनी सलाहियतों और समर्पण भाव से रोशन करते रहे हैं। क्या करें, जब छछूंदर के सर पर चमेली का तेल मिल जाए तो गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है।  
     मन को विषादित करने वाला पहलू यह भी है कि कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। वास्तव में जब घराट ढीला हो जाता है और गेंहूं गिला, तो अच्छी किस्म का आटा नहीं मिल सकता। मायने ये कि नीति निर्धारक, निर्णायक मंडल व अध्यापक सभी का शिक्षा के प्रति दायित्व है। एक-दूसरे पर दोष मड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा। मैं-मैं और तू-तू की इस कशमकश में खनियाज़ा बेकसूर विद्यार्थि को भुगतना पड़ रहा है,  क्योंकि दो बड़े हाथियों की लड़ाई में पिसती तो बेचारी हरी घास ही है।
     भले ही आज अध्यापक का व्यवसाय कांटों से भरा हुआ है, भले ही आज़ गुरु का रुतबा घटा है, परन्तु इस बात में भी कोई शक नहीं कि आज भी बेहतरीन शिक्षकों की समाज़ कद्र करता है और विद्यार्थि इज़्ज़त! एक अच्छे अध्यापक को मा-बाप से भी ऊंचा दर्ज़ा देते हुए महान दार्शनिक अरस्तु ने एक बार कहा था, "जो बच्चे को बेहतर तालीम देता है, उनका सम्मान उनसे भी ज़्यादा होना चाहिए, जिन्होंने उन्हें पैदा किया है!" नि:संदेह विद्यार्थि अच्छे अध्यापक को हमेशा याद रखता है, परन्तु यह भी कम ठीक नहीं कि वह बुरे अध्यापक को भी नहीं भूलता! इसलिए, गुरुवर, जब-जब भी नई नस्ल की बात उठेगी, तो एक सवाल ये भी होगा - आखिर इस नई नस्ल को किसने तैयार किया? फ़िर आपका नाम भी सर्वोपरी आएगा।



Wednesday 17 August 2016

इंस्पेकटर साहब पधार रहें हैं


    बायोमीट्रिक मशीन लगने के शुरुआती दौर की खलबली व तिलमिलाहट अभी ठंडी भी नहीं हुई है और इसकी टीस व कसमसाहट से बहुत सारे शिक्षक अभी उबरने की कोशिश कर ही रहे हैं, कि सरकार ने शिक्षा व्यस्था को चाक चौबंध रखने के लिए एक और कील ठोकने का मन बना लिया है। इन्स्पेक्शन कैडर सैल के गठन के लिए बाकायदा मंजूरी मिल गयी है, वो भी पूरे 94 लोगों की फ़ौज़ के साथ। लगता है सरकार की समझ में अब जा कर धीरे-धीरे ये उतरना शुरु हो गया है कि आर एम एस ए और एस एस ए के भयावह व चिंताजनक नतीज़ों के पीछे सशक्त मिगरानी व्यवस्था का न होना एक बहुत बड़ा कारण रहा है। इन परियोजनाओं को कार्यान्वित करवाने के लिए कभी कागज़ी हवाई ज़हाजों का सहारा लिया गया तो कभी कागज़ की कश्तियों का, परन्तु कागज़ी ज़हाज़ व कश्तियां थोड़ी देर के लिए तसल्ली और खुशी तो ज़रूर देते हैं, पर इन मे बैठकर न उड़ा जा सकता है न समुद्र की सैर की जा सकती है। इस बार लगता है, शायद, साहब लोग संज़ीदा हैं क्योंकि: 
ठोकरें खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का नसीब,
राह के पत्थर तो अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं।
निरिक्षण सैल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज शायद निरिक्षण आज शायद ही किसी आला अफ़सर को स्कूलों के निरिक्षण की फ़ुरसत मिलती है क्यॊकि विभाग ही बहुत विस्तृत है। कभी अगर इस काम के लिए वक्त निकाल भी लेते हैं, तो सिर्फ़ तभी अगर कोई शिकायत आलाकमान तक पहुंचती है। शिक्षा की चिंता शिक्षक, आला अफ़सर, सियासतदां सभी जताते हैं, पर हुक्म, आशा और चाहत से आगे बात नहीं बढ रही! पूरे वर्ष ये जानने की ज़हमत नहीं की जाती कि अमूक विद्यालय में पठन-पाठन का कार्य सही मायनों में चल रहा है या नहीं। वर्षभर कुंभकर्णीय नींद मे सोए रहना, परिणाम आने पर चौकन्ने हो जाना और तुरन्त अध्यापकों पर तबादले की तलवार लटका देना या वेतन वृद्धि रोकने का डर दिखाना न न्यायसंगत है न तर्कसंगत। अगर ये हल है तो कभी समस्या समाप्त नहीं होगी, बल्कि और विकट रूप धारण करेगी। तबादले का मतलब है समस्या एक जगह से दूसरी जगह तबदील हो रही है। 100% परीक्षा परिणाम के ठप्पे के चक्कर में देश का कोना-कोना बिहार ज़रूर बन जाएगा। एक समस्या के शॉटकट हल से दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर लेना कोई अक्लमंदी नहीं क्योंकि रोशनी की खातिर किसी का घर नहीं जलाया जाता।
    शैक्षणिक माहौल को दुरुस्त करना हालांकि आसान सफ़र नहीं जान पड़ता, फ़िर भी इन्स्पेक्शन सैल की स्थापना सरकार की नेक मंशा की ओर ईशारा ज़रूर कर रही है। यह सैल अपने मंतब्य व गंतब्य को साध पाएगा या नहीं, ये अभी कहा नहीं जा सकता क्योंकि एस एस ए व आर एम एस ए की शुरुआत भी काफ़ी जोशोख़रोश के साथ शुरु हुई थी औए आलम आज क्या है, जिक्र करने की ज़रूरत नहीं। नए सैल के अहम पदों पर वही लोग विराज़मान होंगे जो प्रोन्नति की फ़ेहरिस्त में सबसे आगे हैं - मतलब नई गाड़ी में वही पुराने चालक और परिचालक होंगे, और जिन मुसाफ़िरों को वो हांकेगे, वे भी पुराने। ऐसे में वे हिचकोले खाती हुई इस ब्यवस्था से बाहर आ कर इसे ढर्रे पर ला पाते हैं या नही, कहा नहीं जा सकता मगर, पर उम्मीद ज़रूर की जा सकती है। 
    निरीक्षण सैल की स्थापना व बायोमीट्रिक मशीनों से हाज़िरी - ये दोनो कदम इस बात के द्योतक है कि सरकार और शिक्षा के अलम्बरदार मन में ये बिठा चुके हैं कि गुरुजी अपने कर्तब्य के प्रति कोताही बरत रहे हैं। पर क्या सभी ऐसे हैं? ऐसा हरगिज़ नहीं माना जा सकता। अगर सरकार और साहब लोग ये मान ही बैठे हैं, तो ये गौरतलब होगा कि निरीक्षण सैल ऐसे गुरुओं की निशानदेही कर पाता है या नहीं। अगर यह ऐसा नहीं कर पाता तो इसकी भी जवाबदेही तय हो क्योंकि आखिर 94 लोगों की फ़ौज का कुछ तो औचित्य हो। जांच अधिकारी साहब, रपट जरा ध्यान से बनाइगा क्योंकि गुरुजनों को इतना भी कमज़ोर न आंकिएगा और कहीं गुरुओं की निगहबानी के चक्कर में सैल जांच रपट और मुकद्दमों की फ़ाइलों में उलझ कर न रह जाए। ऐसा न हो कि शिकार करने जो निकले थे, खुद शिकार हो जाए।   
    चलो ये भी मान लेते हैं कि इन्स्पेक्शन सैल गुरुओं को कसने में कामयाब हो जाएगा, पर इसके अलावा भी शिक्षा ब्यवस्था में कई झमेले हैं। ’पप्पु पास हो गया’ वाली नीति, जो शिक्षा और शिक्षक के लिए सरदर्द बनी हुई है, से कब मुक्ति मिलेगी? अमेरिकी सोच रखने वालों द्वारा दिए गए इस मर्ज़ की दवा मालूम नहीं कब मिलेगी। केंद्र में शिक्षा मंत्री आते हैं, ’पप्पु पास हो गया’ वाली नीति को कोसते हैं और जुमले फ़ेंक कर निकल जाते हैं। ये कह कर कि सुझाव मांगे रहे हैं, जुमलों से ही तसल्ली कर ली जाती है। हालांकि बहुत से राज्यों ने खुलकर इस नीति का विरोध किया है, पर बात कहां अड़ी है, खुदा जाने। लंबे समय तक शिक्षकों के पद खाली रहने की रिवायत से भी क्या कभी निज़ात मिलेगी? अध्यापक को कागज़ों की मग्ज़खपाई से कब छुट्टी मिलेगी? जनगणना, पशुगणना, चुनाव- कब वह इन सब से छूट कर गुरुजी सिर्फ़ पप्पुओं की सुध ले पाएगा? ज़्यादा देर ठीक है। कहीं देर न हो जाए:
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं। 
    इतने सारे झमेलॊं के चलते, तालीम के बिगड़े हुए हुलिये को सुधारने के लिए भले ही इन्स्पेक्शन सैल नकाफ़ी है, फ़िर भी यह एक बड़ी पहल है। इसके पीछे सोच और मंशा सकारात्मक है, पर पहला-पहला ज़ाम है, साहब, ज़रा संभल कर।
   




Thursday 11 August 2016

क्योंकि बायोमिट्रिक मशीन झूठ नहीं बोलेगी


सरकारी विद्यालयों से नदारद व लेटलतीफ़ गुरुओं के लिए ये पचा पाना मुश्किल हो रहा है कि शिक्षा विभाग हर विद्यालय में उनकी हाज़री बायोमिट्रिक छाप द्वारा दर्ज़ करवायेगा और बाकायदा इस पर निगाह भी रखेगा! वे कसमसा रहे हैं और झुंझलाहट में अगर-मगर वाले कई सवाल कर रहे हैं! उनकी मनोस्थिति को इस तरह बयां किया जा सकता है - मसरूफ़ थे सब अपनी ज़िंदगी की उलझनों में, ज़रा सी ज़मीन क्या हिली कि खुदा याद आ गया! इस लिए वक्त मशीन की इस्लाहियत पर सवाल दागने का नहीं, बल्कि ये सोचने का है कि अगर देरी से आए और जल्दी खिसक गए तो अब खैर नहीं क्योंकि मशीन झूठ नहीं बोलेगी! अगर आप इससे छेड़-छाड़ करने की सोच रहे हो तो बता दें ये गैरकानूनी है! अगर ऐसे विद्यालय में तबादला करने की सोच रहें हैं जहां बायोमिट्रिक मशीन नहीं है, तो उस ख्याल को छोड़ दीजिए क्योंकि देर-सवेर बायोमिट्रिक मशीन हर विद्यालय में लगने वाली है! ऐसी मन्शा रखने वालों को समझ जान चाहिए: घबरा कर वो ज़माने से कहते हैं कि मर जाएंगे, मर कर भी चैन न आया तो फ़िर किधर जाएंगे?
बेशक मज़बूरियों के चलते विभिन्न अध्यापक संघ इस पहल का खुलकर स्वागत नहीं कर पा रहे हैं या वे इस बावत अपनी प्रतिक्रिया देने से कतरा रहे हैं या फ़िर दबी ज़ुबां में इसकी खामियों को तलाश कर गिनाने में लगे हैं! मगर शिक्षा विभाग द्वारा उठाय गया यह एक सराहनीय कदम है! जिस ज़र्ज़र हालत में हमारी शिक्षा आज़ है उसे देखते हुए इस तरह की पहल लाज़मी है! 
शिक्षा में हर खामियों के लिए सरकार को ही दोष देना अपने अंदर की खामियों पर पर्दा डालने वाली बात है! कुछ अंगुलियां आप पर भी निशाना साधे हैं, गुरुवर! यह आयने की तरह साफ़ है कि आज सरकारी गुरुजी पर या तो सरकार व प्रशासन भरोसा करने को तैयार नहीं या यूं कहिए गुरुजी जी समाज़ में तेज़ी से अभिभावकों व लोगों का भरोसा खोते जा रहे हैं! फ़िर हमार शिक्षा विभाग बहुत विस्तृत है और हमारे वतन का मुस्तक्बिल इसी विभाग पर ठहरता है! इस लिए निगाहें गुरुओं पर होना स्वभाविक है! बात चाहे जो भी हो, खामियां खंगालने की बजाए गुरुओं को इस पहल का स्वागत करना चाहिए! अगर वो ऐसा नहीं करने की फ़िराक में है तो वो अपने ढोल के पोल खोल रहे हैं! 
बेशक गुरु राष्ट्र निर्माण की नींव तैयार करते हैं और उनसे उपेक्षा की जाती है वै कर्तब्यनिष्ठ हो कर नई नस्ल के लिए आदर्श साबित हों! ऐसा भी नहीं है कि वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं! बहुत से अध्यापक इस कसौटी पर खरे उतर भी रहे हैं और अध्यापक समुदाय के लिए एक प्रेरणा और शिक्षा जगत के लिए गौरव हैं! परन्तु बहुत से ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ रस्म अदायगी कर रहे हैं! उनका क्या? उनका क्या जो छाती ठोक कर ये कहते हैं - ’कौन पूछता है?’ और ’कोई क्या उखाड़ लेगा?’
वास्तव में आदरणीय गुरुजन भी उस लचर ब्यस्था का ही हिस्सा है जहां देरी से आना, जल्दी निकल जाना हमारे देश के हर सरकारी विभाग में काम करने की संस्कृति बन गयी है! ये भरोसा कर लेना कि वे स्वत: ही अपने इस अंदाज़ को छोड़ देंगे, मगरमच्छ से ये सोच कर दोस्ती करने वाली बात है कि वह ऐसा करके हमें नहीं खाएगा! दरअसल हमारी ब्यव्स्था न्यूटन के पहले नियम के अनुसार चल रही है अर्थात जब तक कोई बाहरी शक्ति का इस्तमाल न किया जाए तब तक हम काम करने के तौर-तरीके बदलने को तैयार नहीं होते और नयी ब्यव्स्था अपनाने से कतराते हैं चाहे ये ब्यव्स्था बेहतर ही क्यों न हो! डंडे के बल पर ही काम करने की आदत पड़ गयी है! 
बायोमिट्रिक मशीन लगने से सब से पहले तो वे प्रधानानाचार्य महोदय चैन की सांस लेंगे जो लेटलतीफ़ गुरुओं को या तो कुछ कह नहीं पाते या उन्हें रोज़ इस बात पर चिकचिक करनी पड़्ती है! दूसरे ऐसे साहबों की भी कमी नहीं है, जो देरी से विद्यालय पहुंचते हैं औए साथ में वक्त की अहमियत का सबक भी पढ़ाते हैं! ऐसे साहबों की दुरुस्तगी भी बायोमिट्रिक मशीन करेगी और जब किसी संस्था के साहब दुरुस्त होंगे तो उनकी नाक के नीचे काम करने वले बहुत सारे कर्मी खुद ब खुद दुस्रुस्त हो जाएंगे! विद्यालयों में तैनात गैर शिक्षक कर्मचारियॊं पर भी बायोमिट्रिक मशीन नकेल ठोंक सकती हैं! भाड़े पर अध्यापक रखना और हाज़री में गड़्बड़झाला जैसी घट्नाओं पर भी रोक लगेगी! 
ज़ाहिर है ब्यवस्था नई है, खामियों भी होगी, पर ऐसी नहीं कि दूर नहीं की जा सकती! मैं ये दावा तो नहीं ठोंक सकता कि बायोमिट्रिक मशीन शिक्षा के लिए रामबांण औषधि है, पर ये बेलगाम व बिगड़ैल शिक्षकों पर शिकंजा जरूर कस सकती है! जरुरत है विभाग इसे रस्म-अदायगी न समझ कर, गंभीरता से कार्यान्वित करे! अगर इसके साथ सी सी टीवी कैमरे भी लग जाए तो शिक्षा के लिए सोने पर सुहागा! अत: गुरुओं को चाहिए कि बायोमिट्रिक मशीन का स्वागत कर अपने आप को नई ब्यवस्था के साथ सुव्यवस्थित करें!

Monday 13 June 2016

कानून का उग आया जंगल, वृक्ष कहीं दिखायी नहीं देता : सरकारी स्कूल बनाम निजी स्कूल


आज से लगभग बारह वर्ष पहले एस एस ए कार्यक्रम का आगाज़ सरकारी शिक्षा का हुलिया सुधारने के लिए किया गया था! तब से कानून बनते गए, नियम परोसे जाने लगे और आर टी ई आया! विभाग के आला अधिकारी व सरकार ढोल पीटते रहे कि अब आयेगा पढ़ने और पढ़ाने का मज़ा! लाचार अध्यापक कहता रहा, चीखता रहा, पर उसको मूर्ख और निट्ठल्ला समझ कर बड़े साहब कानून का ढोल पिटवाते रहे! कुछ अध्यापक खुद अपनी करतूतों से लुटता रहा और कुछ उससे छिन गया! कानून की लाठी से हांकते हांकते आज शिक्षा को जिस मकाम पर पहुंचा दिया गया, वहां अभिभावक  तमाशबीन, छात्र मज़बूर, अध्यापक कुठित और शिक्षा पंगु बन कर गये हैं! कानून का जंगल तो जरूर उग आय है, पर वॄक्ष कहीं नज़र नहीं आ रहा है!  अब सिवाय इसके कि ठिकरा किसके सिर पर फ़ोड़ा जाए किसी को कुछ सूझ नही रहा! हां कभी क्भी कुंभकर्णीय नींद से जब कभी हमारी नाराज़ जनता जागती है तो साहब लोग उनके तुष्टिकरण के लिए गुरुजनों को वेतन वृद्धि व तबादले के डरावने सपने दिखाने शुरु कर देते हैं!
      एस एस ए व आर एम एस ए जैसे शस्त्रॊं से सरकारी सकूलॊं से पलायन रोकने व एनरोलमेंट बढ़ाने का प्रयास किया गया पर कहा जा सकता है कि मर्ज़ बढता ही गया ज्यों ज्यों दवा की गयी! एस एस ए की डाइस रिपोर्ट के अनुसार प्रारंभिक स्तर पर 2003 में 5.89 लाख छात्र सरकारी स्कूलों में थॆ ! ये संख्या 2015 में घट कर 3.23 लाख रह गयी! वहीं प्राइवेट स्कूलों में इस अवधि में एनरोलमेंट 77000 से बढ़कर 3.42 लख हो गयी! हां स्कूल इतनी तेज़ी से बढे जैसे करयाने की दुकानें!
      ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक निजी स्कूलों के अध्यापकों की तुलना में कम काबिल हैं! पर कर्य करने की संस्कृति व शैली में फ़र्क है! जहां निजी सकूलों में निट्ठल्ले गुरुओं को घर का रास्ता नपवाने में देर नहीं लगती, वहीं सरकारी स्कूलों में वर्क एथिक्स इतने बेहतर नहीं! एक बार अध्यापक की नौकरी मिल जाने के बाद ऐसा बहुतायत सोच जाता है - कौन पूछता है या मेरा कोई क्या ऊखाड लेगा? प्रधानाचार्य महोदय भी बेबस दिखते हैं! सरकारी स्कूल का अधयापक हर मुद्दे पर बहस करने को जरूर तैयार रहता है पर शिक्षा को कैसे बेहतर कैसे बनाया जाए इस मुद्दे से कतराता है क्योंकि फ़िर तो उसकी शामत आ सकती है!  
      अभिभवक सरकारी स्कूलॊं में अपने बच्चॊं को भेज तो देते हैं पर उसके बाद उनकी सुध लेने की सुध नहीं लेते! बार बार संपर्क करने पर भी वे स्कूल के दर्शन करने की ज़हमत नहीं उठाते! सब कुछ अध्यापक पर छोड़ दिया जाता है जैसे उसके पास कोई जादू की ऐसी छड़ी है जिससे उनके बच्चे एक दम होशियार हो जाएंगे! हां परीक्षा परिणाम वले दिन अध्यापकों की तरफ़ तरेरी निगाहों से जरूर देख लेते हैं! उधर निजी स्कूल के बच्चों के अभिभावक किसी टेस्ट में कम अंक आने पर कारण बताओ नोटिस ले कर अध्यापक के पास पहुंच जाते हैं!
      निज़ी स्कूलों के अध्यापक को एम डी एम का हिसाब किताब नहीं रखना पड़ता ! वे किसी गैर शिक्षण कार्यॊं में सम्मिलित नहीं होते! वे केवल पढ़ाते हैं! उधर सरकारी अध्यापक को कागज़ों से काफ़ी संघर्ष करना पड़ता है! गैर शिक्षण कार्यों में लगाते समय हर विभागीय अधिकारी शिक्षकों को सबसे योग्य, बेहतरीन और उपयुक्त मानते हैं लेकिन इसके अलावा वे भी चठकारे ले कर अध्यापकों का मज़ाक उड़ाने से गुरेज़ नहीं करते!
      सरकारी स्कूलॊं में लम्बे समय तक अध्यापकों के पद खाली पड़े रहते हैं! कोई होश लेने को तैया नहीं! इतना जरूर है कि तबादलों से विभाग को फ़ुर्सत नहीं ! तबादला करते समय ये देखना भी मुनासिब नहीं माना जात कि कहीं बच्चों की पढ़ाई पर क्या नकारत्मक असर पड़ेगा! तबादलों पर रोक के आदेश छलावा ही लगता है क्योंकि ये ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती ही रहती है, फ़िर मार्च हो या दिसंबर!  वैसे अगर तबादला निदेशालय भी खोल दिया जाए तो शिक्षा विभाग की सर दर्दी कफ़ी कम हो जाएगी और नया निदेशालय कफ़ी फ़लेगा फ़ूलेगा! 
       इन सब के बावजूद अगर परिणाम ठीक नहीं तो अभिभावक, अधिकारी, सरकारें सब एक जुट हो कर अध्यापक को फ़ांसी देने की अपनी मंन्शा को छुपा नहीं पाते, फ़ांसी हो न हो वो अलग बात है! बेहत्तर है विभाग व सरकार को चाहिए कि अध्यापकों को गैर शिक्ष्ण कार्यॊं से दूर रखा जाए व पदों खाली न रखा जाए और वर्ष भर की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखी जाए! वर्ष के अंत में परिणाम टटॊलने से मोती नहीं मिलते साहब! 

     

Sunday 5 June 2016

पंगु होती शिक्षा


आज शिक्षा उस मोड़ पर आ गयी है जहां खड़े हो कर आगे का रास्ता देखा जाए तो लगता है कि देश की भविष्य की चिंता शिक्षक, आला अफ़सर, सियासतदां सभी जताते हैं पर हुक्म, आशा और चाहत से आगे बात नहीं बढ रही! जहां सब पास की नीति नासूर बनती जा रही है और छात्रों पंगु बनते जा रहे हैं, वहां 0-25% परीक्षा परिणाम का आना कोई असामान्य घटना नहीं! इस तरह की घटनाएं होती ही रहेंगी! माना कि 0-25% जैसा खराब परिणाम शिक्षकों के निट्ठल्लेपन और नाकाबलियत की ओर ईशारा करती है! ये भी माना उसमें दुनियां भर की बुराइयां आ गयी है, पर क्या सभी ऐसे अध्यापक हैं? और पूरे का पूरा ठिकरा अध्यापकों के सर पर फ़ोड़ देना क्या वास्त्विक हल है? बहुत सारे अध्यापक ऐसे जरूर होंगे जो कार्य के प्रति निष्ठा नहीं रखते, पर क्या सभी?
और क्या उनके निट्ठल्लेपन के लिए विभाग या आला कमान जिम्मेबार नहीं
अगर साहब लोगों को लगता है कि शिक्षक निट्ठल्ले व कामचोर हैं और उनका तबादला करना चाहिए तो बेशक कीजिए पर थोड़ी उनकी भी सुन लीजिए! जरा ये भी जरूर सोचिए कि क्या अध्यापकों का तबादला रामबांण औषधि है! जी नहीं - आप ऐसा करके बहुत बड़ा सुधारात्मक कदम नहीं उठा रहे हैं, बल्कि समस्या एक जगह से दूसरी जगह तबदील हो रही है! यकिन मानिए ऐसा करना केवल एक बिहार बनाने की तैयारी मात्र है! अगर 100% परीक्षा परिणाम ही अच्छे अध्यापक की कसौटी है तो ये काम भी मु्श्किल णहीं साहब - नकल ही तो करवानी है! ऐसे में जिन नौजवानों की फ़ौज़ हम बनाएंगे वो टोकरी में रखे उन आमों की तरह होगी जो दिखेंगे शानदार पर उनका रस सिर्फ़ खठास ही करेगा!
सारे वर्ष कुंभकर्णीय नींद मे सोए रहना, और परिणाम आने पर चौकन्ने हो जाना -  ऐसा न विभाग के लिए  न्यायसंगत है न शिक्षकों के लिए तर्कसंगत! फ़िर बौखलाहट में अध्यापकों को सूली पर चढा देना - अगर ये हल है तो कभी समस्या समाप्त नहीं होगी बल्कि और विकट रूप धारण करेगी! ऐसे में "देश के कोने कोने को बिहार बना कर छोड़ेंगे" का नारा जरूर साकार हो जाएगा!
सियासतदां और अधिकारी स्वयं विभिन्न मंचों से मान चुके हैं कि आठ्वीं कक्षा तक सब का पास हो जाने से एक आठवीं पास छात्र गुणा भाग तक नहीं कर सकता फ़िर एका एक बेहतर परिणाम की इछा रखना - ये कैसा तर्क है ! यहां मंजिल तो सही है, पर साहब आप शिक्षकों को उस नाव में बिठा रहे हो जो विपरीत दिशा में जा रही हैं!  
सत्रह वर्ष के कार्यकाल में मैने मुशिकल से एक आध बार किसी आला अफ़सर को किसी स्कूल का निरिक्षण करते देखा है और वो भी पहले सूचित कर! क्या पूरे वर्ष ये जानने की कोशिश की जाती है कि अमूक अध्यापक अपना कार्य सही मायनों में कर रहा है? क्या इस बात को तरजीह दी जाती है कि अध्यापक का पद खाली न रहे? क्या अध्यापक नियुक्ति के  समय योगयता को दरकिनार नहीं किया जाता? पिछले दस बारह वर्षों से चल रहे आर एम एस ए और एस एस ए के कार्यक्र्म के अंतर्गत किसी एक भी कामचोर शिक्षक की क्लास ली गयी? क्या कभी इस ओर ध्यान दिया गया कि अध्यापक को कितने गैर शिक्षण कार्य करने पड़ते हैं? इसके लिए भी क्या शिक्षक ही जिम्मेदार है?

अंधेरों की शिकायत से कुछ नहीं होता जनाब
ये भी देखिये कि रोशनी की मज़बूरियां क्या है!
इस बात में जरा भी संदेह नहीं कि सब पास निती ने शिक्षा का स्तर तो गिराया ही है, साथ में काम चोरों को कामचोरी की पूरी छूट दे दी! वे कगज़ के पेट बखूबी भर लेते हैं और विभाग भी इतिश्री मान लेता है! आगे ये क्या करेंगे, ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं!
शिक्षकों के पास मां -बाप बड़े भरोसे अपनी संतान भेज रहे हैं ! उसे अपनी संतान समझ कर
बेहतरीन तालीम देना शिक्षक का परम कर्तब्य है!
जाँन एफ़ केनेडी ने कहा था "एक गलत शिक्षित बच्चे का मतलब है एक बच्चे का खो जाना"! और आला अधिकारियों से इल्तज़ा है कि आप बेशक दोषी व निट्ठ्ल्ले शिक्षकों को दंडित कीजिए, पर पूरे अध्यापक समुदाय को प्रताड़ित कर शिक्षा सही राह नहीं पा सकती:

कु तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता
जी तो बहुल चाहता है सच बोलें, क्या करें होंसला नहीं होता