Monday 28 May 2012

सब भाषा में है निज भाषा का विस्तार

इस बात को कतई भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि ’निज भाषा को उन्नति है सब उन्नति को मूल’, पर इसके यह भी मायने नहीं निकाले जाने चाहिए कि अपनी भाषा के अलावा दूसरी भाषा का इल्म हासिल करना अपनी भाषा से दगा करना है या अपनी भाषा की तोहीन करना है ! वास्तव में एक से अधिक भाषाएं बोलना अपने आप में हुनर तो है ही पर साथ में यह एक अनूठे आनंद की अनुभूति देता है ! जैसे हिन्दी भाषा के मुकाबले के अन्य भाषा में कई शब्द नहीं मिलते ठीक उसी तरह अन्य भाषाओं में भी कई ऐसे शब्द हैं जिनका हिन्दी भाषा में सामी नहीं ! और इन शब्दों का जब अन्तर्प्रयोग किया जाए तो बात ही कुछ और है !
अपनी भाषा का विस्तार केवल अपनी भाषा से हो तो सकता है पर उसका विस्तार सीमित रहता है ! वो ठीक वैसा है जैसे खूंटे से बंधी हुई रस्सी जिसका दायरा निर्धारित है ! यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है जिसे जीने के लिए दाना तो मिलता है पर उसकी ऊड़ान कुंद रह जाती है और वह विस्तृत स्व्छंद विचरण नहीं कर सक्ता ! अतः भाषा का आदान प्रदान हो तो हर भाषा एक नए क्षितिज को प्राप्त कर सकती है !
ज़ाहिर है कि अंग्रेज़ी भाषा का इस्तमाल भी अन्य भाषाओं के इस्तमाल जैसा ही है ! मुझे इस बात से कोई गिला नहीं कि हिंदी वाले हिंदी की पैरवी करे पर इस बात पर सख्त ऐतराज़ है कि अगर वो ये कहे कि अंग्रेज़ी ने हिन्दी का बेड़ागर्क कर दिया ! यह तो वही बात हो गयी कि भारत इस लिए तरक्की नहीं कर रहा क्योंकि पड़ोसी देश तरक्की कर रहे हैं ! अक्सर एक तर्क की आड़ ले कर कहा जाता है अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों की भाषा है और अंग्रेज़ों ने हम पर हकूमत की है, इसलिए अंग्रेज़ी से गुलामी की बू आती है ! पर यह तर्क हमारी दकियानुसी मानसिकता को दर्शाता है और इस भाषा को न सीख पाने की टीस इस तर्क के माध्यम से निकल आती है ! फ़िर आज़ अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों की नहीं बल्कि विश्व की भाषा है ! अंग्रेज़ से नफ़रत हो सकती है, अंग्रेज़ी से नहीं, हिन्दोसतानी गलती कर सकता है हिन्दी नहीं ! अगर दो मिनट के लिए यह तर्क मान भी लिया जाए, तो हमें उर्दू या फ़ारसी भी नहीं सीखनी चाहिए क्योंकि जिनकी ये भाषा है उन्होंने तो अंग्रेज़ों से पहले इस वतन को रोंदा था ! और फ़िर उर्दू तो हमारे उस पड़ोसी की अहम ज़ुबान है जो हमें एक आंख नहीं भाता या हम जिसे एक आंख नहीं भाते ! क्या हम यह नकार सकते हैं कि अंग्रेज़ी के माध्यम से ही सब से पहले हमने अंग्रेज़ो के विरुद्ध अलख जगाया था ! मैं अंग्रेज़ी को ठीक वैसे देखता हूं जैसे फ़्रेंच, जर्मन, ऊर्दू या फ़िर कोई और भाषा ! और अगर इन भाषाओं को सीख पाऊं तो भाग्य्शाली समझूं ! भाषा कोई व्यक्ति नहीं जिस के चरित्र व वय्क्तित्व को लांछित किया जाए बल्कि एक हुनर है जिसे सीख लें तो किसी के घड़े का पानी कम नहीं होगा ! अच्छी हिन्दी बोलना व लिखना मुझे जहां गर्व की अनुभूति देता है, वहीं दूसरी भाषाओं का इस्तमाल एक संतुष्टी और आत्म सुख का अनुभव कराता है !

Wednesday 7 March 2012

शून्य में खुद को खोजती नारी ( updated )

 अगर महिला आरक्षण विधेयक व घरेलु हिंसा निरोधक कानून के लागू होने से, नारी सशक्तिकरण का राग अलापने से या सड़क पर उतर कर अधिकारॊं का डंका ठोकने से नारी का उत्थान हो सकता तो शायद हमारे देश की नारी कब की बिना टिकट ही चांद पर पहूंच जाती ! अरे आप तो सोचने लगे कि मैं नारी विरोधी बात कर रहा हूं ! जी नहीं, आप बिल्कुल गलत है और मैं सोलह आने ठीक ! जरा सोचिए आप ने अपने अपने घरों मैं अपनी पत्नी, बहिन, बेटी को कितनी भागीदारी, आज़ादी व अधिकार दिए हैं ! कहीं ऐसा तो नहीं कि आप गलियों मैं नारी सम्मान की डींग मारते हो और अपने घर में पत्नी, बहिन, बेटी इन तीनों पर अपने मर्द होंने की धौंस ठोकते हो ! अगर वाकई आप अपने घरों में भी नारी का सम्मान कर पाते हो तो महिला आरक्षण विधेयक व घरेलु हिंसा निरोधक कानून की आवश्यकता ही नहीं, न ही नारी को सड़क पर नारे ठोकने की जरूरत है !

वास्तव में पुरुष को ज़हनी तौर से नारी को उसका स्थान देना होगा और नारी को हाथ पसार कर नहीं बल्कि अपनी शक्ति को स्वयं पहचानना होगा ! इसके लिए शिक्षित होने के साथ नारी सचेतना की आवश्यकता है !

अब तो लेखक भी नारी की व्यथा लिखते लिखते थक गये हैं ! लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ! कह्ना गलत न होगा कि हम नारी को सशक्त बनाने के नाम पर हमेशा उसे यही एहसास दिलाते हैं कि वह आज भी अबला है ! आधुनिकता के इस दॊर में भी हमरे देश की नारी अपने हिस्से का आसमां खोज रही है !

कानून कितने ही बना लिये जायें, पर लगाम मर्द आसानी से छोड्ने वाला नहीं ! ऐसा नहीं है कि आज की नारी को मौका नहीं मिल रहा ! देखना होगा की नारी को यह सब कुछ मिलने के बाद भी क्या वह अपने अधिकरों का प्रयोग करने में आज़ाद है ! स्थानीय निकायों में कितनी ही महिलायें चुनी जाती हैं ! पर वे या तो निष्क्रीय हैं या उनकी डोर पति या रिश्तेदारों के हाथ में ही रह्ती है ! आवश्यकता इस बात की है कि नारी सश्क्तिकरण के लिये चलाये जा रहे अभियान व कानून के परिणामों की समिक्षा हो ! 

मेरा ज़रा भी यह मतलब नहीं है कि हमारे देश की नारी किसी से पीछे है ! वास्तव में कलपना चावला का अन्तरिक्ष में जाना, सुष्मा स्वराज, शीला दिक्षित का संसद में गर्जना, किरन बेदी का दम खम, सानिया मिरज़ा की टेनिस में चुनॊती जॆसे कई उदहरण हैं जो यही सिद्ध करते हैं कि महिलाएं अपने बल बूते अपने आप को बुलंदियों पर स्थापित कर सक्ती है ! ये किसी आरक्ष्ण की मोह्ताज नहीं !

परन्तु हमारे नारी समाज का एक बहुत बडा वर्ग ऎसा है जो कोने में दुबक कर एक शून्य की जिन्दगी जी रहा है ! वह पुरूष प्रधान समाज की रूढिवादी सोच को या तो अपन भाग्य मान बॆठी है य पती की सेवा-पालन को अपना धर्म ! ज़ुल्म होने पर भी शिकायत नहीं करती ! इस नारी को इस शून्य से बाहर कॆसे लाया जाये ? यह एक यक्ष प्रश्न है !

नारी समाज से एक शिकायत जरूर रहेगी ! आज़ादी को नकारात्मक रुप दे कर नारी ने मर्यादायों का उल्लंघन किया है ! स्वतंत्रता की अंधी दॊड में अपने आत्मसम्मान व बॊधिक विकास को दरकिनार कर नारी व्यव्साय की वस्तु बनती जा रही है ! पारिवारिक जीवन में वह बंधना नहीं चाह्ती ! ममत्व से ज्यादा वह निजि ज़िन्दगी को अहमियत देती है ! क्ल्बों मे जा कर नशे में धुत हो कर बांहों मे बांहें डाल कर कामुक डांस करना आज़ादी है, तो शायद यह हमारा दुर्भागय है ! पुरूष की ऎसी नकल कर नारी ने पुरुष की घटिया मानसिकता को जवाब नहीं बल्कि मंजूरी दी है और वात्सल्य के बजाय पुरूष की कामुकता को हवा ही दी है ! ऎसे मे एक तनावग्रस्त समाज की कल्पना की जा सकती है, एक सभ्य समाज की नहीं ! 

नि:सन्देह आज के बदलते परिवेश में नारी "ताड्न की अधिकारी" नहीं ! य़ह भी आवश्यक नहीं कि वह "श्रद्धा" बन कर पुरूष के "निर्जन आंगन" में "पीयूष स्रोत सी" बहती रहे ! वास्तव में नारी को स्वयं को अंधयारे से बाहर लाना होगा ताकि वह किसी आरक्षण विधेयक या हिंसा निरोधक कानून की मोहताज न रहे ! अहम बात ये भी है कि पुरुष को भी नारी की आजादी को स्वीकारना होगा ! नहीं तो कानून बनते जायेंगे और जिसके "आंचल में दूध" है, उसकी "आंखों में पानी" ही रहेगा ! वास्तव में नारी को भी अपने हिस्से की धूप चाहिए, एक आसमां चाहिए जहां वह भी पुरुष की तरह स्वछःन्द विचारों की उडान भर सके !


शून्य में खुद को खोजती नारी !

बात चाहे महिला आरक्षण विधेयक की हो या घरेलु हिंसा निरोधक कानून की या फ़िर नारी सश्क्तिकर्ण की, नारी की कमजोरी आज भी उजागर हॆ! अब तो लेखक भी नारी की व्यथा लिखते लिखते थक गये हैं ! लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ! कह्ना गलत न होगा कि हम नारी को सशक्त बनाने के नाम पर हमेशा उसे यही एहसास दिलाते हैं कि वह आज भी अबला है ! आधुनिकता के इस दॊर में भी हमरे देश की नारी अपने हिस्से का आसमां खोज रही है ! 
कानून कितने ही बना लिये जायें, पर लगाम मर्द आसानी से छोड्ने वाला नहीं ! ऐसा नहीं है कि आज की नारी को मौका नहीं मिल रहा ! देखना होगा की नारी को यह सब कुछ मिलने के बाद भी क्या वह अपने अधिकरों का प्रयोग करने में आज़ाद है ! स्थानीय निकायों में कितनी ही महिलायें चुनी जाती हैं ! पर वे या तो निष्क्रीय हैं या उनकी डोर पति या रिश्तेदारों के हाथ में ही रह्ती है ! आवश्यकता इस बात की है कि नारी सश्क्तिकरण के लिये चलाये जा रहे अभियान व कानून के परिणामों की समिक्षा हो ! 
मेरा ज़रा भी यह मतलब नहीं है कि हमारे देश की नारी किसी से पीछे है ! वास्तव में कलपना चावला का अन्तरिक्ष में जाना, सुष्मा स्वराज, शीला  दिक्षित का संसद में गर्जना, किरन बेदी का दम खम, सानिया मिरज़ा की टेनिस में चुनॊती  जॆसे कई उदहरण हैं जो यही सिद्ध करते हैं कि महिलाएं अपने बल बूते अपने आप को बुलंदियों  पर स्थापित कर सक्ती है ! ये किसी आरक्ष्ण की मोह्ताज नहीं !
 परन्तु हमारे नारी समाज का एक बहुत बडा वर्ग ऎसा है जो कोने में दुबक कर एक शून्य की जिन्दगी जी रहा है ! वह पुरूष प्रधान समाज की रूढिवादी सोच को या तो अपन भाग्य मान बॆठी है य पती की सेवा-पालन को अपना धर्म ! ज़ुल्म होने पर भी शिकायत नहीं करती ! इस नारी को इस शून्य से बाहर कॆसे लाया जाये ? यह एक यक्ष प्रश्न है !
नारी समाज से एक शिकायत जरूर रहेगी ! आज़ादी को नकारात्मक रुप दे कर नारी ने मर्यादायों का उल्लंघन किया है ! स्वतंत्रता की अंधी दॊड में अपने आत्मसम्मान व बॊधिक विकास को दरकिनार कर नारी व्यव्साय की वस्तु बनती जा रही है ! पारिवारिक जीवन में वह बंधना नहीं चाह्ती ! ममत्व से ज्यादा वह निजि ज़िन्दगी को अहमियत देती है ! क्ल्बों मे जा कर नशे में धुत हो कर बांहों मे बांहें डाल कर कामुक डांस करना आज़ादी है, तो शायद यह हमारा दुर्भागय है ! पुरूष की ऎसी नकल कर नारी ने पुरुष की घटिया मानसिकता को जवाब नहीं बल्कि मंजूरी दी है और वात्सल्य के बजाय पुरूष की कामुकता को हवा ही दी है ! ऎसे मे एक तनावग्रस्त समाज की कल्पना की जा सकती है, एक सभ्य समाज की नहीं !  
नि:सन्देह आज के बदलते परिवेश में नारी "ताड्न की अधिकारी" नहीं ! य़ह भी आवश्यक नहीं कि वह "श्रद्धा" बन कर पुरूष के "निर्जन आंगन" में "पीयूष स्रोत सी" बहती रहे ! वास्तव में नारी को स्वयं को अंधयारे से बाहर लाना होगा ताकि वह किसी आरक्षण विधेयक या हिंसा निरोधक कानून की मोहताज न रहे ! अहम बात ये भी है कि पुरुष को भी नारी की आजादी को स्वीकारना होगा ! नहीं तो कानून बनते जायेंगे और जिसके "आंचल में दूध" है, उसकी "आंखों में  पानी" ही रहेगा ! वास्तव में नारी को भी अपने हिस्से की धूप चाहिए, एक आसमां चाहिए जहां वह भी पुरुष की तरह स्वछःन्द विचारों की उडान भर सके !