Monday 27 December 2010

'मन्दिर-मस्जिद बैर कराते ---- ’

 न्सान जब पैदा होता है, वह न हिन्दु होता है, न मुस्लमान, न सिख, न इसाई, न कुछ और ! वह एक इन्सान के रूप मैं पैदा होता है ! वह न ’अल्ला हू अकबर, कह्ता है, न ’हर हर महादेव’ ! वह तो बस खुदा के घर से आया पाक दामन प्राणी होता है ! ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, उसे यह सिखा दिया जाता है कि वह या तो हिन्दु है या फ़िर मुस्लमान या कोई और ! मज़हब उस्की पह्चान बन जाता है ! इस मज़हबी कश्मकश मैं वह आदमियत खो देता है ! किसी एक मज़हब का हो कर खुदा, भगवान या जिजस की पैरवी करते करते वह अल्ला से दूर हो जाता है !
कोई कहता है मन्दिर मैं मिलेगा, कोई कहता है मस्जिद में मिलेगा, किसी को गिरिजाघरों में दिखाई देता है तो किसी को दीदार होते हैं मठ बिहारों में ! मगर खुदा अगर है तो वह निवास करता है इन्सान के दिल में, उस के अच्छे कर्मों में, उस की नेक नियत में ! सन्त कबीर ने क्या खूब फ़रमाया है :

मोको कहां ढूंडे

Friday 24 December 2010

डर

Picture from google 

एक नया सवेरा होने की आशा, पर रात आने का डर  !
कामयाबी की उम्मीद में एक कोशिश, पर नाकाम होने  का डर !
फ़ूल पाने की आशा में बढ़ता हाथ, पर कांटों की चुभन का डर !
मंजिल की तलाश में उठते कदम, पर मंजिल से भटकने का डर !
ज़िंदगी की राह में हमसफ़र का साथ, पर फ़िर जुदा होने का डर !
मुस्कुराने की एक दबी सी हसरत, पर गमों कि ज़द में आने का डर !
एक आशियां बनाने की लम्बी हसरत, पर ज़लज़ले आने का डर ! 
ज़िंदगी जीने की एक तमन्ना, पर मौत के आने का डर !

Wednesday 22 December 2010

आग

सीने में मेरे सुलग रही है आग
डरता हूं कहीं जल ना जाऊं
कभी पड जाती शीतल,
फ़िर अचानक धधक उठती है आग

शायद ज़िन्दा हूं मैं
तभी सुलगती है ये आग
मर जाऊं, हो जाऊं मैं शान्त
फ़िर नहीं सुलगेगी ये आग 

पर क्यों  जाऊं  मुर्दा अचेत, निश्चल ?
क्यों हो जाऊं मॆं शामिल इस भीड़ में ?

नहीं, मैं जीना चाहता हूं इस तरह से,
कि सुलगती रहे ये आग
आज मेरे सीने में जलती,
कल हर सीने में जलाना चाहता हूं मैं  आग 

Sunday 19 December 2010

भाषा कट्टरवाद छोड़िए

कसर हिन्दीवादी देशप्रेमी राष्ट्र भाषा के नाम पर अंग्रेज़ी के विरुद्ध बहुत बड़ा बवाल खड़ा कर देते हैं ! इस तरह की अंग्रेज़ी विरोधी विचारधारा पर मुझे सख्त एतराज़ है जिस में हिन्दी के लिए अंग्रेज़ी को कोसा जाए ! यह कह कर मेरा मकसद कोई विवाद खड़ा करना नहीं क्योंकि मुझे तो इस बात पर भी ऎतराज़ है कि अंग्रेज़ी को हिन्दी की बली चढ़ा कर तरजीह दी जाए ! यह भी कतई न माना जाए कि मैं देशद्रोही हूं और न ही मैं यह मानने को तैयार हूं हिन्दीवाले मुझ से ज़्यादा देशभक्त हैं ! अंग्रेज़ी का प्रयोग कर भी मैं उतना ही हिन्दुस्तानी हूं जितना हिन्दी का प्रयोग कर ! वास्तव में दोनों ही भाषाएं मुझे अज़ीज़ है ! ये दो ही क्यों ? मैं इस बात में खुशी मह्सूस करूंगा कि मुझे अधिक से अधिक भषाओं का बोध हो और मैं इन भषाओं को बोल और लिख सकूं ! सभी भषाओं को समान दॄष्टि व सम्मान से देखना एक दिलेर संस्कृति की द्योतक है ! ये कहने की आवश्यकता नहीं है कि अगर हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है तो अन्ग्रेज़ी एक वैश्विक भाषा !
जहां तक भाषा के पढ़ने-पढ़ाने की बात है् तो निःसंदेह हिन्दी का दर्ज़ा अंग्रेज़ी से पहले आना ही चाहिए क्योंकि हिन्दी भाषा किसी अन्य भाषा के मुकाबले हमरी संस्कृति को बेहतर ढंग से व्यक्त करती है ! इस दृष्टि से यह हमें जोड़े रखने में अहम भूमिका अदा करती है ! पर इस के मायने ये नहीं कि किसी हिन्दी भाषा की ठेकेदारी ले कर हम दूसरी भाषा को गाली दें ! वास्तव में अगर हिन्दी को विश्व स्तर पर अपना डंका बजाना है तो अंग्रेज़ी इस में अहम भूमिका निभा सकती है ! अतः अंग्रेज़ी को तिरस्कृत नहीं बल्कि परिष्कृत करना चाहिए !
किसी विशेष भाषा को तरजीह देकर, किसी दूसरी को तिरस्कृत करने का विचार एक कुन्द सोच रखने वाला भाषाई कट्टरवादी ही रख सकता है ! हिन्दी को महत्व दिया जाय, मुझे कोई शिकायत नहीं, मगर ये मुझे गंवारा नहीं कि अंग्रेज़ी को तिरस्कृत किया जाय ! हम बेहतर हिन्दी बोलें व लिखें पर इस सब के बाद इस लोकतन्त्र में हर एक व्यक्ति किसी भी भाषा क प्रयोग करने के लिए स्व्तन्त्र है !
भूलना नहीं चाहिए कि अंग्रेज़ी सहित्य ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाया है ! अनीता देसाई, आर के नारायनन, खुशवन्त सिंह, राजा राव अंग्रेज़ी साहित्य में छोटे नाम नहीं हैं ! किरन देसाई की ‘Inheritance of Loss' अर्विंद अडिगा की ‘The White Tiger', आरुन्धती की 'God of Small things'  ऐसी कृतियां है जिनके कारण साहित्य के क्षेत्र में भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना झंडा गाड़ा है ! अगर टैगोर की ’गीतांजली’ अंग्रेज़ी में अनुवादित न हुई होती तो नोबेल उन्हें न मिलता !
सृजनात्मक सहित्य से हट कर भी भारतीय लेखकॊं ने अन्य विषय में अंग्रेज़ी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना कर देश का नाम रोशन किया है ! अर्बिंन्दो घोष, नेहरू, गांधी, अमार्तय सेन और अबुल कलाम की पुस्तकें इस बात कि द्योतक हैं कि अंग्रेज़ी को माध्यम बना कर भी ये व्यक्ति इस देश के आदर्श माने जाते हैं !
कोई भी भाषा अपने साथ सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्य लिये होती है ! विभिन्न भाषाओं की जानकारी रखना, उन्हें स्वीकार कर लेना, उन्हें सम्मिलित कर लेना एक दिलेर व अमीर संस्कृति के गुण हैं ! शायद अंग्रेज़ी की यही फ़ितरत है कि यह आज वैश्विक भाषा है !
निज भाषा को उन्नति है सब उन्नति को मूल - भारतेन्दु जी के इन शब्दों पर मुझे जरा भी संदेह नहीं, पर उन्होंने कभी भी ऐसा नहीं कहा और न ही उनका कभी यह आशय रहा कि - पर भाषा को निन्दा है सब उन्नति को मूल !      

Monday 13 December 2010

चन्द सांसें सकून की

कुछ लम्हे ठहर, रहम कर मुझ पर,
मत पुकार यूं मुझे बार-बार !
लेने दे मुझे चन्द सांसें सकून की,
जीने दे कुछ पल मुझे भी अपने !
उम्र भर भटकता रहा हूं यूं ही
मैं क्षितिज पर अनन्त !

न मंजिल, न जहां कोई मेरा अपना,
लड़खड़ाता, टूटता-जुड़्ता, फिसल कर संभलता,
समेटता खुद को, ज़ज़बातों को छुपाता,
असूलों को जीता, भटकता रहा हूं यूं ही
मैं क्षितिज पर अनन्त !

बस, अब बस ! थोड़ी देर ठहर !
लेने दे मुझे चन्द सांसें सकून की !

फिर आऊंगा मैं लौट कर रहा मेरा वादा !
ठहरना चाहता हूं, रुकना नहीं !
ताकि भर सकूं खुद में फ़िर से शक्ति अपार,
विश्वास अगाध, और लड़ सकूं तुझ से !
बस इसलिए, लेने दे मुझे चन्द सांसें सकून की !

Sunday 5 December 2010

शब्द

शब्द के पीछे बहुत से शब्द,
शक्ति असीम शब्द एक एक की !
खूबसूरती को खूबसूरत बनाते शब्द,
वक्त को बदलने की ताकत रखते शब्द !

उद्विग्न मन शीतल करते शब्द,
कुंठाओं को व्यक्त करते शब्द !
शब्द छुपाते ग़म को खुशी में
जीवन की बगिया मह्काते शब्द !

मह्काते शब्द सूने आंगन को,
शब्द देते अकेले मन को संग !
जीवन को मायने देते शब्द,
हंसते हंसाते, रोते रुलाते शब्द !

ज़माने मे क्रांति लाते शब्द,
शब्द बदलते दशा समाज की !
गुलामी को भगाते शब्द,
स्वछन्दता में विचरण कराते शब्द !
एक शब्द फिर मायने इस तरह,
कि शब्दों के पीछे बहुत से शब्द !

पर शब्दों की है संस्कृति अपनी,
जिसमें फलते फूलते शब्द !
रुठ जाते, सूख जाते हैं शब्द,
मिले न अगर इन्हें जगह अपनी !
शब्द हो जाते हैं निरर्थक,
गंवाते है जब इन्हें व्यर्थ !

Wednesday 1 December 2010

खो जाऊं !


खो जाऊं मैं इस दुनियां से दूर,
बहुत दूर क्षितिज के उस पार !
पंख मिले मुझे निंदिया रानी के,
और उड़ चलूं मैं पंछी की तरह !

इस शून्य से उस शून्य तक,
विचर्ण करुं बेलगाम पतंग की तरह !
न ये दुनियां, न दुनियां के सवाल,
न कोई शिकवा न कोई झमेला !

चुरा ले कोई मुझे उस दुनियां में अनन्त,
एक जहां अनजाना सा फ़िर भी अपना सा !
अपनों के फ़रेब से दूर, ग़ैरों की नफ़्ररत से परे,
ठगी भरी हंसी से बहुत दूर !

ले चल मुझे उस क्षितिज की अनन्तता की ओर,
लौटूं न जहां से मैं कभी !